Saturday, November 19, 2011
जीवन का अर्थ
Friday, October 14, 2011
समझे अपनी जिम्मेदारी
Wednesday, October 12, 2011
महाप्रलय का दिन
लाख बदल जाएँ नजरें लाडलों की,
दिल में उसके कभी खटास नहीं होती।।
लेखक कभी निराश नहीं होता
लाख बदल जाएँ धारणाएँ समाज की,
लेखनी में उसके कभी विषाद नहीं होता।।
शिक्षक कभी निराश नहीं होता,
चाहे बदलती रहें परंपराएँ शिक्षा की
ज्ञान वीणा को उसकी वनवास नहीं होता।।
अपनी ममता को घृणा में बदल,
जिस दिन निराश होगा लेखक
अपनी लेखनी को कर घायल,
या जब निराश होगा शिक्षक
होकर अज्ञान का कायल,
वह दिन सृष्टि पर
महाप्रलय का दिन होगा।।
Friday, October 7, 2011
तब होगी शक्ति पूजन की सार्थकता
साम्राज्य एक दिन का
Sunday, September 25, 2011
सिक्के के दो पहलू
Sunday, September 11, 2011
ये रीत इस दुनिया की
Thursday, September 1, 2011
धार्मिक आयोजन : श्रद्धा का गणित या चंदे का
Saturday, August 27, 2011
महिलाएँ चाहे तो रोक सकती हैं भ्रष्टाचार
Tuesday, August 16, 2011
alekh
Sunday, August 14, 2011
स्वतंत्रता के मायने
Tuesday, August 2, 2011
सिंघम
Sunday, July 17, 2011
चोरी तेरे कितने रूप
चोरी तेरे कितने रूप
Saturday, July 9, 2011
बात ईश्वर की है.....
Saturday, June 25, 2011
अपराधों में लिप्त होती लड़कियां
Monday, June 20, 2011
पितृ दिवस
आजकल अक्सर याद आती है
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थी देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।
आजकल अक्सर याद आता है,
पिताजी का तमतमाया चेहरा,
जो बिफर-बिफर पड़ता था,
मेरे देर से घर लौटने पर।
अब भली लगती हैं,
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुन-सुन कभी,
उबल-उबल जाता था मैं।
आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी,
जो कभी हुआ करती थी,
उलझन का सामान मेरी।
अक्सर हैरान होता हूँ इस बदलाव पर
जब उनके रूप में खुद को पाता हूँ।
क्योंकि अब मेरा अपना बेटा
पूरे अट्ठारह का हो गया है।
Thursday, June 9, 2011
बाबा का दरबार या श्रद्धा का व्यवसाय
Friday, May 20, 2011
अनुभव
Sunday, May 15, 2011
लघुकथा
अगला जन्म
सड़क के किनारे बनी मजदूर बस्ती में वह अपने टूटे-फूटे झोंपड़े में बच्चों को बहला रही थी| भोजन के नाम पर बर्तन में चावल के चंद दाने थे | सोचती थी बातों के बहलाव-फुसलाव के साथ परोसे गए चावल उनका पेट भरने में कामयाब हो जाएंगे | इतने में बड़ा बेटा बोला ," माँ , क्या अगला जन्म भी होता है?"
वह बोली ,"हाँ बेटा , सुना तो है , क्यों ?
बेटा बोला ," फिर तो मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा की अगले जन्म में मुझे इंसान नहीं, सामने वाले बंगले का कुत्ता बनाना | पता है माँ , वह कुत्ता रोज़ दूध-बिस्कुट, अंडे-ब्रेड-मांस खाता है | रोज़ महंगे शैम्पू से नहाता है और कार में भी घूमता है | और तो और बीमार पड़ जाने पर डॉक्टर उसे खुद देखने आते हैं | कुत्ता होकर कैसी ठाठ की जिन्दगी है न उसकी ?"
उसकी आँखे फटी की फटी रहा गई थी | कानों में बच्चे के शब्द भांय-भांय कर रहे थे| उसे लगा मानो सामने बैठा बच्चा अचानक कुत्ते की शक्ल का हो गया और भौं-भौं करता हुआ सामने वाले बंगले में घुस गया |
भारती पंडित
इंदौर
Friday, May 13, 2011
विवाह समारोह: बचपन की यादें
Thursday, May 5, 2011
माँ
Wednesday, March 30, 2011
लघुकथाएँ
सुबह-सुबह घूमने जाने वाले व्यक्ति चौराहे पर भीड़ लगाकर खड़े हो गए थे | कल अमावस्या की रात थी और इसका साक्षी था चौराहे पर पडा बड़ा-सा कुम्हड़े का फल.. जिसपर ढेर - सा सिन्दूर लगा हुआ था, उसके अंदर नींबू काटकर रखा गया था, अंदर ही कुछ अभिमंत्रित लौंगे भी रखी हुई थी |
स्पष्ट था की अमावस्या की रात को अपने घर की अलाय-बलाय उतारने के लिए किसी ने जबरदस्त टोटका किया था और उसका उतारा चौराहे पर लाकर पटक दिया था |
लोग खड़े-खड़े खुसुर-फुसुर कर रहे थे ... रास्ता बुहारने आई जमादारनी भी "ना बाबा ना , मैं बाल-बच्चों वाली हूँ.." कहकर उसे बुहारने से इनकार कर गई | " अभी रास्ते पर चहल-पहल हो जाएगी, बच्चे भी खेलेंगे-कूदेंगे.. यदि किसी ने इसे छू लिया तो ?" सभी यहाँ सोचकर उलझन में थे कि एक अधनंगा व्यक्ति भीड़ को चीरकर घुस आया | दो दिन से भूखे उसके शरीर में उस कुम्हड़े को देखते ही फुर्ती आ गई | आँखे चमक उठी और कोई
कुछ समझता, इससे पहले ही उसने झपटकर कुम्हडा उठाया , उसपर नींबू निचोड़ा और गपागप खाने लगा... लोगों की आँखे फटी रह गई ..
उसके पेट की भूख का टोटका अमावस्या के टोटके पर भारी पड़ गया था |
नियति
वह लोगों के घर में साफ़-सफाई का काम करती थी | पति दिन भर मजदूरी करता , शाम को नशे में धुत घर आता .. अपनी मनमानी करता ..कभी उसे बिछौने की तरह सलवटों में बदलकर तो कभी रुई की तरह धुनकर ... वह मन ही मन उससे घृणा करती थी | करवा चौथ आती तो सास जबरन उसे सुहाग जोड़ा पहनने को कहती , सज-संवरकर व्रत करके पति की लंबी आयु की प्रार्थना करने को कहती .. वह यह सब करना न चाहती पर उससे जबरन करवाया जाता |
एक दिन उसका शराबी पति ट्रक के नीचे आक़र मर गया | उसे मानो नरक से मुक्ति मिली | आज वह खूब सजना -संवारना चाहती थी, हंसना खिलखिलाना चाहती थी पर उसके तन पर लपेट दिया गया सफ़ेद लिबास और होंठो पर जड़ दी गई खामोशी.. चुप्पी ..
वाह री नियति ......
या देवी सर्व भूतेषु
पूजाघर में नौ देवियों के भव्य चित्र लगे हुए थे | नवरात्रि चल रही थी , त्रिपाठी जी शतचंडी के पाठ में व्यस्त थे | मंत्रोच्चार से सारा घर गूँज रहा था -" ओंम एँ ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चेइ नमः ॥"
अचानक उनकी पत्नी ने उन्हें बाहर बुलाया ,, सुनिए , बहू की सोनोग्राफी की रिपोर्ट आ गई है.. बच्ची है पेट में
" तो सोचना क्या है,, हटाओ उसे.. हमें बेटी नहीं चाहिए.."
"मगर बहू न मानी तो ?"
" राजेश से कहो, लगाए दो हाथ कसके ॥ फिर भी न माने तो छोड़ आए मायके॥ कहना वहीं रहे सारी जिन्दगी .."
आदेश देकर वे पुनः जाप में व्यस्त हो गए .. ऊँ एम् ....
तस्वीर में देवी की आँखे विस्फारित मुद्रा में उन्हें देख रही थीं |
भारती पंडित
इंदौर
Friday, March 18, 2011
kavita
रंगों से दिल सजा लूं इस बार होली पर
रूठों को अब मना लूं इस बार होली पर |
इक स्नेह रंग घोलूँ आंसू की धार में
पानी ज़रा बचा लूं इस बार होली पर |
अपनों की बेवफाई से मन है हुआ उदास
इक मस्त फाग गा लूं इस बार होली पर |
रिश्तों में आजकल तो है आ गई खटास
मीठा तो कुछ बना लूं इस बार होली पर |
उम्मीद की कमी से फीकी हुई जो आँखें
उनमें उजास ला दूं इस बार होली पर|
भारती पंडित
इंदौर
Wednesday, March 9, 2011
web partika me prakashit rachana
|
Monday, March 7, 2011
Women's Day
Tuesday, March 1, 2011
Aalekh
आइए आज भूख की बात करते है..भूख केवल पेट की ही नहीं होती.. एक भूख होती है छपास की और मंच की. इस भूख को एक बीमारी भी कह सकते है, जिसका वाइरस अधिकतर साहित्यकारों को और कलाकारों को अपनी चपेट में लेता है.. कलाकार भी वे जिनके ढोल में पोल होती है. यह वाइरस धीरे-धीरे दिमाग में घर करता जाता है और सारे व्यक्तित्व पर हावी होता जाता है. इस भूख से पीड़ित व्यक्ति की आत्माभिमान करने के शक्ति बहुत बढ़ जाती है.. उसे अपनी कला पर आत्मविश्वास नहीं, अति विश्वास हो जाता है. वह दूसरों की सुनना बिलकुल बंद कर देता है और अपनी ढपली-अपना राग आलापना शुरू कर देता है. किसी समारोह में जाने पर उसकी पहली कोशिश होती है मंच पर चढ़कर माइक हथियाने की.. यदि सरलता से मिल जाए तो ठीक, अन्यथा वह "बस जरा सा कुछ कहना है" कहकर मंच पर चढ़ जाता है. कई बार तो इस मंच के लिए आयोजकों के कोपभाजन बनने से भी नहीं डरता . यह दीवानगी तब और बढ़ जाती है, जब समारोह को कवर करने रिपोर्टर्स आते है.. फिर तो धक्का-मुक्की करके ऐसी जगह पहुचने का प्रयास होता है कि कल के अखबार में मुखड़ा उनका ही चमकना चाहिए.. चाहे समारोह में कोई भागीदारी हो या न हो.. जब बहुत प्रयासों के बाद भी फोटो में जगह नहीं मिल पाती, तो सेटिंग करने से बाज नहीं आते.. और भगवान की दया से यदि किसी समारोह में कोई कविता सुनाने(मुख्य अतिथि के आने में देर होने पर) या गीत गाने का मौका मिल जाए, तो जोड़-तोड़ करके ,अपने प्रभाव या पद का उपयोग करके ऐसी जुगाड़ फिट करते है कि समारोह चाहे कोई भी हो, मुख्य धारा के समाचार में अपना नाम और फोटो डलवाकर ही दम लेते है.. आयोजक बेचारा अगले दिन का अख़बार देखकर बाल नोचकर रह जाता है .. उसके आयोजन के समाचार का बदला रूप देखकर सिवाय मन ही मन गाली देने के कर भी क्या सकता है .. मगर अगली बार उसे अपने आयोजन में कदम भी न रखने देने की कसम खा लेता है..
Friday, February 18, 2011
लघु कथा
Wednesday, February 9, 2011
kavita
Thursday, January 13, 2011
kavita
अल-सुबह जब सूरज खोलता भी नहीं है
झरोखे आसमान के
चिडिया करवटें बदलती हैं
अपने घरोंदों में
उसके पहले उठ जाती हूँ मैं
घर को सजाती संवारती
सुबह के काम समेटती
चाय के कप हाथ में लिए
सबको जगाती हूँ मैं
जानती हूँ, औरत हूँ मैं ........
बच्चों की तैयारी,
पतिदेव की फरमाइशें
रसोई की आपा धापी
सासू माँ की हिदायतें
इन सब के बीच खुद को
समेटती सहेजती हूँ मैं.
कोशिश करती हूँ कि माथे पर
कोई शिकन न आने पाए
जानती हूँ औरत हूँ मैं.....
घर, दफ्तर,, मायका ससुराल
गली, कूचा ,मोहल्ला पड़ोस
सबके बीच संतुलन बनाती मैं
चोटों को दुलार, बड़ों को सम्मान
अपनापन सभी में बाँटती मैं
चाहे प्यार के चंद मीठे बोल
न आ पाए मेरी झोली में
जानती हूँ औरत हूँ मैं .......
कोई ज़ुबां से कहे न कहे
मेरी तारीफ़ के दो शब्द
भले ही ना करे कोई
मेरे परिश्रम की कद्र
अपने घर में अपनी अहमियत
जानती हूँ ,पहचानती हूँ मैं
घर जहां बस मैं हूँ
हर तस्वीर में दीवारों में
बच्चो की संस्कृति संस्कारों में
रसोई में, पूजाघर में
घर की समृद्धी, सौंदर्य में
पति के ह्रदय की गहराई में
खुशियों की मंद पुरवाई में
जानती हूँ बस मैं ही मैं हूँ
इसीलिए खुश होती हूँ
कि मैं एक औरत हूँ.