Saturday, November 19, 2011

जीवन का अर्थ


हर पल रोना साहस खोना
दिल क्या नन्हा सा छौना है
क्यों डरता मन धड़कन-धड़कन
जीवन नहीं खिलौना है

क्या तेरा है क्या है मेरा
क्या चांदी क्या सोना है
रंग -बिरंगी दुनिया को भी
एक रंग में खोना है |

प्यार की खातिर कुछ पल जी ले
भरा हलाहल खुद ही पी ले ,
नींव बने जो शिखर छोड़कर
जीवन वही सलोना है |

एक दिन वह भी आएगा
किया भला सो पाएगा
नन्ही सी हर बूँद को एक दिन
सीप का मोती होना है |
bharti pandit

Friday, October 14, 2011

समझे अपनी जिम्मेदारी


फिर गूँज उठा राऊ पटाखों की फेक्टरी के भयानक विस्फोट से ... चिथड़े बन उड़ते शरीर, ज़िंदा जलते जीवित लोग...उजड़ते परिवार .. आज राऊ में, कभी ग्वालियर में.. तो कभी जबलपुर में .. विस्फोटों की यह श्रुंखला चलती ही रहती है और जब विस्फोट हो जाता है, कई परिवार उजड़ जाते हैं, कई मासूम अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं .. तब जागता है प्रशासनिक अमला अगली कारवाई हेतु .. मानो शासन रूपी देवता की आँखें नरबली के बाद ही खुलती है |
क्या इसके पहले शासन को यह पता नहीं होता कि फलां जगह पर पटाखे बनाए जाते हैं ? क्या दुकानों में भरे जखीरे या गोदामों में असुरक्षित तरीके से भरे गए माल की जानकारी प्रशासन की अनुभवी आँखों से छुपी रहती होगी? फिर समय रहते कारवाई करने की बजाय हमेशा किसी दुर्घटना के घटने का ही इंतज़ार क्यों किया जाता है ?
यह बात आज शायद हर अशिक्षित को भी मालूम है कि पटाखे जलाने से वायु में जहरीली गैसों का स्तर बढ़ता है जो दीपावली जैसे त्योहार बीतने के महीने भर बाद तक भी वायु में कायम रहता है | इस तथ्य से भी लोग अनजान नहीं है कि इन फेक्टरियों में काम करने वाले लोग प्रत्यक्ष् और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूप में खतरे के ग्रास बने ही रहते हैं.. यदि भयानक विस्फोट हुआ तो जान जानी है.. यदि विस्फोट नहीं भी हुआ तो भी जहरीले रसायनों का धीमा ज़हर उनके शरीर में प्रवेश कर उन्हें भयानक लाइलाज बीमारियाँ दे ही देता है | यह भी सर्व विदित है कि कानूनन बाल श्रमिक प्रतिबंधित होने के बाद भी इन पटाखों के कारखानों में बड़ों के साथ बच्चे भी बहुतायत में श्रम करते हैं और इन दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं..वे तो पेट के लिए अपनी जान की बाज़ी खेलते हैं पर क्या निरीक्षण के लिए जाने वाला अमला इस तथ्य से अनजान रहता होगा ?
वातावरण के प्रति सामान्य जागरूकता रखनेवाले लोग ओजोन परत के क्षरण के बारे में भी जानकारी रखते हैं जिसका एक बड़ा कारण पटाखों से निकालने वाला धुंआ भी है | हम बड़े बड़े ढोल पीट पीटकर प्रदूषण हटाओ, प्रकृति को बचाओ जैसे नारे लगाते है.. इतनी जागरूकता होने पर भी क्या ये आंकड़े चौकाने वाले नहीं है कि गत दस वर्षों में पटाखों की खपत लगभग चौगुनी हुई है और इनकी विषाक्तता भी दोगुनी हो गई है ? पहले केवल बड़े उत्सवों पर चलाए जाने वाले पटाखे अब जरा-जरा से समारोह के अंग बन गए हैं.. यानि अपनी खुशी को दर्शाने के लिए प्रकृति को सौ-सौ आंसू रुलाना आज का चलन बन गया है |
हैरत यह है कि ऐसी हर बात के प्रति सरकार का रवैया ढुल-मुल ही रहता है ... जिस उत्पादन से हानि ही हानि हो, उसपर तुरंत रोक क्यों नहीं लगाई जाती? क्यों नहीं इस उद्योग में संलग्न श्रमिकों को कही अन्य स्थान पर पुनर्वास दिया जाता ... मगर यह खेल फिर टेक्स और सेटिंग का आ जाता है क्योंकि विस्फोट में झुलसने वाले गरीब होते हैं मगर आमदनी के हकदार रसूखदार होते हैं | यही हाल कमोवेश शराब और सिगरेट के लिए भी कहा जा सकता है... शराब आज युवाओं के पथभ्रष्ट होने का मुख्य कारण बन गया है मगर फिर भी हर वर्ष दर्जनों सरकारी ठेके आबंटित होते हैं... इस शराब से कितने गरीबों की गृहस्थी उजडती है किसी को देखने की फुरसत नहीं है क्योंकि उनके अपने खजाने इन्ही की अवैध कमाई से आए करोड़े के टैक्स से भरे जा रहे हैं... अब इस रकम के आगे हजार-सौ जानों की क्या बिसात ..
कहावत है कि जब बड़े अक्षम हो जाए तो छोटों को अपने स्तर पर काम करना होता है... जो गलत है उसके प्रति समाज में जागरूकता जगाना हमारा भी फ़र्ज़ है.. हर परिवर्तन के लिए सरकार या क़ानून का मुंह ताकने की बजाय जागरूकता लाने का प्रयास हम भी कर सकते हैं.. क्या होगा यदि सारे बच्चे दीपावली पर पटाखे चलाने के लिए मना कर दे? जब खपत ही नहीं होगी तो उत्पादन घटेगा ही और धीरे-धीरे इनका अस्तित्व लुप्त हो जाएगा | इसके लिए जागना होगा शिक्षकों को और पालकों को.. वैसे भी पटाखों ने क्यों और कैसे हमारे शांत उत्सवों में धमाकों के साथ प्रवेश किया पता नहीं पर यह धमाके हमें हर तरह से महंगे पड़ने वाले हैं अतः देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते ऐसी हर बुराई के बारे में समाज को जागरुक करें जो देश-समाज या प्रकृति के लिए घातक है... उत्सव और त्योहार खुशियाँ बांटने के लिए हैं... कुछ पल की अपनी खुशी यदि दूसरे के जीवन में अन्धेरा करने वाली है तो ऐसे उत्सव मानाने का क्या फ़ायदा... जरा सोचे और जान जागरण का प्रयास करे..
भारती पंडित
इंदौर

Wednesday, October 12, 2011

महाप्रलय का दिन

माँ कभी निराश नहीं होती,
लाख बदल जाएँ नजरें लाडलों की,
दिल में उसके कभी खटास नहीं होती।।

लेखक कभी निराश नहीं होता
लाख बदल जाएँ धारणाएँ समाज की,
लेखनी में उसके कभी विषाद नहीं होता।।

शिक्षक कभी निराश नहीं होता,
चाहे बदलती रहें परंपराएँ शिक्षा की
ज्ञान वीणा को उसकी वनवास नहीं होता।।

जिस दिन निराश होगी माँ
अपनी ममता को घृणा में बदल,
जिस दिन निराश होगा लेखक
अपनी लेखनी को कर घायल,
या जब निराश होगा शिक्षक
होकर अज्ञान का कायल,
वह दिन सृष्टि पर
महाप्रलय का दिन होगा।।

भारती पंडित

Friday, October 7, 2011

तब होगी शक्ति पूजन की सार्थकता

कल की कन्या पूजा के लिए सजी-धजी कन्याएं आज फिर साज-सिंगार तज माँ के साथ रसोई में हाथ बँटा रही हैं.. मन में यादें ताज़ा हैं कल के एक दिन के राज-पाट की.. यदि कन्या पूजा की यह परंपरा न होती तो शायद कितनी ही कन्याओं को " ख़ास होने के अहसास " का पता ही न चल पाता. दूर क्यों जाऊं, अपने आस-पास ही देख रही हूँ.. सामने बनते घर के पास की झोपडी में चूल्हे के सामने बैठ ७-८ साल की वह लड़की रोटी बना रही है, उसकी माँ बजरी ढो रही है .. बाल श्रमिक वहाँ प्रतिबंधित हो सकते हैं.. मगर यह बेगार ? क्या इस पर किसी का ध्यान जाता है? उसकी दूसरी बहन अपने छोटे भई को सम्हाल-दुलार रही है. भाई रोया तो उसकी खैर नहीं, वह अच्छी तरह जानती है .स्कूल का सपना इनकी माँ ने जान कर इन्हें दिखाया ही नहीं है.. कही स्कूल जाकर कुछ अजूबे सपने घर न बना ले उनकी आँखों में ...
पड़ोसन की बहू पेट से है. जब भी बात होती है, वे कहती है.. बहू के लक्षण तो लडके से ही दिखे हैं.. वैसे हमें तो लड़का क्या और लडकी क्या.. लडकी क्या.. शब्द में छुपा भय स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है .. आज भी पहली लड़की हो तो दूसरे लडके की चाह होती है ताकि फैमिली कम्प्लीट हो जाए.. क्या एक लड़की से परिवार पूर्ण नहीं होता?
आजकल जोर-शोर से बेटी बचाओ का नारा दिया जा रहा है.. बड़े-बड़े आयोजन कर कन्या पूजन किया जा रहा है.. उन्ही प्रदेशों में कन्या भ्रूण हत्या का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है ...और केवल भ्रूण ह्त्या ही क्यों कहे.. यदि बेटी पैदा तो होने देते हैं .. मगर उसे उसके अधिकारों से वन्चित रख जाता है..तो क्या यह हत्या समान नहीं? कुपोषित, अशिक्षित, अजागरूक बेटियाँ जिन्हें कदम कदम पर अपमानित, उपेक्षित और कई बार तो उपभोगित होना पडेगा.. क्या शक्ति का प्रतीक मानी जा सकती हैं? क्या एक दिन का कन्या पूजन किसी उद्येश्य को सार्थक कर सकता है?
शक्ति पूजा तभी सार्थक होगी जब लड़की से जुडी सभी कुप्रथाओं का अंत होगा, दहेज़ से लेकर बेटी के विदाई तक की सभी रस्मों के पीछे छिपे भय और लालच को समूल नष्ट किया जाएगा और माँ, दादी, चाची, बुआ, नानी तैयार होगी अपने घर में लक्ष्मी के स्वागत के लिए..

भारती पंडित
३१,स्वर्ण प्लाज़ा
स्कीम ११४-१
ए.बी.रोड
इंदौर

साम्राज्य एक दिन का

बिट्टू को समझ में ही नहीं आ रहा था कि आज दादी से लेकर चाची, बुआ सबको हो क्या गया है. रोज तो उसे खूब भाव मिलता था, उसकी मान-मनुहार की जाती थी, उसके पहले हुई तीन बहनों को तो कोई गिनती में गिनता भी नहीं था . दादी तो सुबह होते ही उसके हाथ में दूध से भरा गिलास पकडाती थी ,साथ होता था मलाई लगा टोस्ट और बहनों को चाय से आधे भरे गिलास देकर काम पर लगा दिया जाता था . लड़की की जात हो, काम करना सीखोगी तभी ससुराल में निभोगी.. नहीं तो नाक कटाएंगी निगोड़ी.. जैसे प्रवचनों से ही बहनों का नाश्ता भी हो जाता था.. ..
पर आज तो रंग ढंग ही निराले थे. सुबह ही तीनों को बढ़िया उबटन लगाकर नहलाया गया, बालों की सुन्दर चोटी की गई, नए कपडे पहनाकर ऐसे तैयार किया गया मानो कोई त्योहार हो. बिट्टू की ओर तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया . देखते ही देखते घर में और भी लड़कियां जमा हो गई. पिताजी ने सबके पाँव पूजे, गरमा-गरम खीर पूरी खाने को दी. बिट्टू ने खीर के कटोरे को हाथ लगाया तो पिताजी ने आँखे लाल-पीली करके कहा," दस मिनिट सबर नहीं हैं, पहले कन्या तो खा ले.."
सारी कन्याएं घर-घर घूमती फिरी. यहाँ-से न्योता, वहाँ से न्योता ... खा-खाकर अघाई, खूब सिक्के, तरह तरह की चीजें इकठ्ठी कर घर ले आई.
बिट्टू उदास हो घर के बाहर बैठा था कि पास का गुड्डू आया," क्या हुआ बोंस, परेशान क्यों हो?" बिट्टो ने मन की दुविधा कह डाली. मन में डर था कि कही उसका राजसिंहासन डोल तो नहीं रहा है..गुड्डू ठठाकर हंस पडा.." अरे चिंता मत कर छोरे, आज नवमी है ना ..देवी माँ का दिन.. बस एक ही दिन का राज -पाट है इनका .. कल से फिर जुट जाएँगी अपने काम-काज में.. अगली नवमी के इन्तजार में.."
. एक कड़वा सच..और सचमुच ही शाम होते ही घर-घर में कठोर पुकार मचने लगी.. अरी निगोड़ी.. खेलती ही रहेगी या माँ के साथ हाथ भी बंटाएगी?
बिगुल बज गया था.. एक दिवसीय साम्राज्य के अंत का ...
भारती पंडित

Sunday, September 25, 2011

सिक्के के दो पहलू


पिछले दिनों एक समारोह में प्रसिद्ध लेखिका सुश्री संतोष श्रीवास्तव से मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिला | संतोष जी हिन्दी के प्रचार -प्रसार के सिलसिले में विदेश भ्रमण करती रहती हैं और उन्होंने जापान,फ़्रांस, स्पेन आदि के बड़े ही रोचक अनुभव सुनाए | गर्व की बात यह लगी कि विदेशों में हिन्दी को बड़े सम्मान से देखा जाता है, वहाँ हिन्दी भाषा के शिक्षण हेतु विशेष विभागों की व्यवस्था है, उनके पुस्तकालय हिन्दी की पुस्तकों से अटे पड़े हैं और उसपर विशेष यह कि वे लोग शुद्ध और धाराप्रवाह हिन्दी बोलते है .. यानि हिन्दी को हिंगलिश बनाकर नहीं | ये लोग अपनी राष्ट्रभाषा से बहुत प्रेम करते हैं | इन देशों में अंग्रेज़ी विदेशी भाषा के रूप में ही जानी जाती है और उसके प्रति कोई स्नेह नहीं दिखाया जाता | भारतीय भाषा, पहनावे और खान-पान के प्रति लोगो में बड़ा आकर्षण है और वहाँ बाकायदा भारतीय भोजनालय मिलेंगे जिनके नाम मीरा, कबीर, रामायण, श्री कृष्ण आदि है और वहाँ हिन्दी में गीत ,भजन आदि सतत चलते रहते हैं | वह के लोग यह आने पर बड़े निराश होते हैं क्योंकि एयरपोर्ट पर लगे सारे होर्डिंग उन्हें अंग्रेज़ी में लिखे मिलते हैं .. यह तक कि टैक्सी वाले भी हिन्दी शब्द जैसे दूतावास , सचिवालय नहीं समझते | उन्हें इनका अंग्रेज़ी शब्द बताना पड़ता है |
मैं यह सब सुनकर अभिभूत हुई और सोचा इसे एक लेख की शक्ल देकर स्थानीय समाचार पत्र में भेजती हूँ | लेख भेजने पर सम्बंधित अधिकारी का फोन आया ," भारती जी, आलेख तो बढ़िया है, मगर हिन्दी दिवस तो चला गया है.. क्या अगले हिन्दी दिवस के लिए संभालकर रख लूं ?"
मैं हतप्रभ थी.. मेरे देश में मेरी अपनी भाषा का गौरवगान करने के लिए भी सिर्फ एक दिन ?
भारती पंडित

Sunday, September 11, 2011

ये रीत इस दुनिया की


वाह री दुनिया की रीत अजब
बस पत्थर पूजे जाते हैं ,
साकार ब्रह्म को ठुकराकर
मंदिर में शीश नवाते हैं ...

उस दीन-हीन की करुणा पर
कब ध्यान किसी का जाता है ,
सेवा के हित निर्बल की यहाँ
कब हाथ कोई बढ़ पाता है ,
काले धन को करते सफ़ेद
देवों को मुकुट चढाते हैं .
वाह री दुनिया की रीत .....

इस ओर दीनता का नर्तन
उस ओर बहे पानी सा धन ,
सुख-सुविधायुक्त सकल जीवन
फिर अंडर से कलुषित मन ,
रखते मानव को क्षुधा सिक्त
श्वानों को दूध पिलाते हैं .
वाह री दुनिया की रीत....

भारती पंडित

Thursday, September 1, 2011

धार्मिक आयोजन : श्रद्धा का गणित या चंदे का

धार्मिक उत्सवों की शुरुवात हो चुकी है | अब यदि यदि रात के दस-ग्यारह बजे भी आपके घर की घंटियाँ बजानी शुरू हो जाए तो अचरज न करें .. खीझें भी नहीं .. अरे भाई यही तो समय है चन्दा माँगने का .. आप उनींदी आँखों से दरवाजा खोलते है, सामने खड़े हैं चुन्नू-मुन्नू-टुन्नू ...अंकल चन्दा .. वो आप दिन में नहीं मिलते तो सोचा अभी ले ले...
ये चन्दा गणेशोत्सव से लेकर नवरात्रि , दशहरा, होली किसी का भी हो सकता है | हो सकता है कि आप पिछले दिनों में ऐसी ही किसी न किसी टोली को चन्दा दे-देकर अपनी जेब से १००-२०० रूपए ढीले कर चुके हो सो दस-बीस रूपए पकड़ाकर जान छुड़ाना चाहेंगे तो ये बच्चे पीछे पड़ जाएंगे, बार-बार कहेंगे, घंटियाँ बजाएँगे | यदि फिर भी आप नहीं मानेंगे और बेशर्मों की तरह उनके मुंह पर ' भड़ाक ' से दरवाजा बंद कर देंगे तो ... तो ये बच्चे सचमुच शैतानी कर जाएंगे | ये शैतानी आपके घर के बाहर रखे समान को फेंकने से लेकर बल्ब तोड़ने , गाडी की हवा निकालने ,सामान चुराने या दीवारों पर गुटके की पीक थूकने तक कुछ भी हो सकती है | गोया आपसे चन्दा झटकना उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो और उसे न चुकाकर आप अक्षम्य अपराध कर बैठते हो |
इन गली मुहल्लों के आयोजनों के चलते देवी-देवताओं की ऐसी दुर्गति होती है कि शायद वे भी अपनी हालत देखकर रो पड़ते हो | २-३ हज़ार की आबादी वाली एक कालोनी में पंद्रह या सोलह जगहों पर गणेश जी/ दुर्गा जी बिठाए जाते हैं | हर टोली घूम-घूमकर दादागिरी से चन्दा इकट्ठा करती हैं फिर आपसी होड़ के चलते कानफोडू भजन लगाकर सारी कालोनी को हैरान करती है | टी.वी. की तर्ज़ पर प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है | सबसे ज्यादा अचरज इस बात पर होता है कि चंदे के अधिकतर समूहों की अगुवाई बच्चे या कालोनी के बेकामकाजी युवा करते हैं | क्या देवी-देवताओं की स्थापना के बाद उनकी विधिवत पूजा-अर्चना इन बच्चों द्वारा की जाती होगी ? क्या धार्मिक उत्सवों के उन मानदंडों को पूरा किया जाता होगा, जिनके लिए इन्हें शुरू किया गया था ?
९-१० दिनों के ध्वनि प्रदूषण के बाद हजारों की संख्या में जल में विसर्जित की जाती हैं प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियाँ , जो जल को प्रदूषित करने का काम बखूबी करती हैं और एक साल के उत्सवों के भयानक परिणाम नदी-तालाब सालों तक झेलते रहते हैं | ड्रामा अभी ख़त्म नहीं हुआ है | अब आती है बारी चंदे के बचे हुए पैसे बांटने की | यदि ईमानदारी से बंटवारा हुआ तो ठीक, अन्यथा हाथापाई से लेकर सिर फुत्तौवल तक सब कुछ देखा जा सकता है | यही नहीं .. ये पैसे लेकर बच्चे सिगरेट-बीडी के कश खींचते या पान गुटखा चबाते भी देखे जा सकते हैं | आज जब हम वैसे ही अवर्षा- अतिवर्षा- बाढ़-सूखे के रूप में प्रकृति की नाराजगी को झेल रहे हैं, क्या ऐसी सामजिक विकृतियों के प्रति जागरुक होना जरुरी नहीं है ? अब तो वैसे भी मिलने- मिलाने के लिए ऐसे उत्सवों के बहाने की जरुरत नहीं है .. तो फिर हर दस कदम पर होने वाले इन आयोजनों का विरोध क्यों न किया जाए? क्यों न अन्य धर्मों की तरह शहर के चार कोनों में या गिनी-चुनी जगहों पर इन उत्सवों का आयोजन हो और बाकी पूजा-अर्चना अपने घरों में ही पूर्ण शुद्धता व शुचिता से की जाए? आपको नहीं लगता कि ईश्वर तब शायद ज्यादा प्रसन्न होंगे ?
वास्तव में देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते अपने वातावरण, पर्यावरण और संस्कृति को शुद्ध व स्वच्छ रखना हमारा कर्त्तव्य है | हमें जागरुक होना होगा, हर प्रदूषण को रोकना होगा.. विशेषकर धार्मिक आयोजनों को सही रूप में प्रस्तुत करने और उनसे कुछ ठोस ग्रहण करने पर विचार करना होगा .. अन्यथा देर हो जाने पर बिगड़ी बात फिर संवारी न जा सकेगी | बस हाथ मलने के अलावा कोई चारा न रहेगा हमारे पास..
भारती पंडित
Indore

Saturday, August 27, 2011

महिलाएँ चाहे तो रोक सकती हैं भ्रष्टाचार


भ्रष्टाचार के महामानव से आज सारा देश जूझ रहा है | भ्रष्टाचारी बाज़ नहीं आ रहे हैं और सारी सहनशीलता को दांव पर लगाने के बाद आज सारा देश अण्णा हजारे जी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खडा हुआ है | भ्रष्टाचार की जड़ में जाए और यदि इस बात पर गौर करे कि आखिर आदमी भ्रष्ट क्यों हो जाता है तो इस विचार के साथ ही इस समस्या का समाधान भी सामने आने लगेगा | भ्रष्टाचार का एकमात्र उद्देश्य अकूत धन-सम्पदा को प्राप्त करना , समस्त सुख-सुविधाओं का जमकर उपभोग करना और अपने धन संग्रह द्वारा अपने और अपने परिवार का रुतबा समाज में बढ़ाना होता है |जिस तरह किसी जादुई कहानी में जादूगर की जान किसी तोते में बासी रहती है , वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति की जान उसके परिवार में बसती है | व्यक्ति भ्रष्ट इसलिए भी होता है कि अपने परिवार को सुख-सुविधासम्पन्न बना सके |
एक साधारण कमाई करने वाला ईमानदार पति जब दिन-रात की मेहनत के बाद भी धन की कमी के चलते परेशानियों से जूझता रहता है , पत्नी के तानों का सामना करता है, बच्चों की हीन भावना को महसूस करता है तो कमाई बढ़ने के शोर्टकट ढूँढता है | इन्हीं शोर्ट कट्स की एक पतली गली जाती है काली कमाई के, भ्रष्टाचार के दोराहे पर .. इस दोराहे पर संतोष-समाधान के दायरे टूटते हैं और एक अच्छा खासा ईमानदार व्यक्ति बेईमानी की धुंध में घिरता जाता है |
कैसी विडम्बना है कि इमानदारी की जिस कमाई के घर आने पर घर में सदैव असंतोष व्याप्त रहता था , बेईमानी का धन आते ही घर सुखी हो जाता है , सुविधाओं से युक्त हो जाता है | सस्ती सड़ी में लिपटी रहने वाले पत्नी सिल्क की महंगी सदियों में लिपटी , गहनों से लदी-फंदी महंगी कारों में जाकर किसी महंगे होटल में किटी पार्टी की शोभा बढाती नज़र आती है | बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ने लगाते हैं, ब्रांडेड कपडे-जूते पहनने लगाते हैं | प्रथम दृष्टया तो घर में प्रसन्नता की देवी आनंदित हो नर्तन करती नज़र आती हैं मगर गहराई में जो कुछ चटक रहा होता है, संस्कार-संस्कृति की जड़े जो धीरे-धीरे जंग खाती हैं उनकी गूँज किसी धमाके सी भले ही न सुनाई दे मगर एक न एक दिन सारी खुशियाँ ध्वस्त करती ही हैं और हाथ आते हैं दुःख, अपयश औत जीवन भर की ग्लानि ..
अब यदि कल्पना करें ऐसे घर की जहाँ पति पहली बार बेईमानी से कमाया गया धन घर में लेकर आता और पत्नी उस धन का इस्तेमाल करने से इनकार कर दे ?.. बच्चे उस धन का उपयोग अपने स्तर , सुख-सुविधाओं में करने को तैयार न हो ?... माँ-बहन-भाभी-पत्नी के रूप में महिलाएं उसके इस कृत्य की भर्त्सना करना प्रारंभ कर दे ? .. क्या परिवार के असहयोग के चलते वह व्यक्ति गलत रास्ते पर जाकर धन कमाने का अगला प्रयास करना चाहेगा ? शायद नहीं ..
मगर यही समाज की त्रासदी है कि मुफ्त का सब स्वीकार है चाहे वह किसी भी कीमत पर मिल रहा हो | थोड़ा मिलने पर अधिक की ही नहीं बहुत अधिक पणे की चाहा है , दूसरों की होड़ की लालसा है , दिखावे की चाह है..और इसी में जमी हैं भ्रष्टाचार की जड़ें .. और दुःख है कि इन जड़ों में खाद-पानी डालने में महिलायें महती भूमिका अदा करती हैं |
स्त्री चाहे तो परिवार स्वर्ग बन सकता है यह कहावत यूं ही नहीं कही गई है | यह समय है आत्मावलोकन करने का .. यदि हर घर में स्त्री संतोषी -समाधानी हो , लालसा-होड़ से दूर हो, नैतिक मूल्यों से लबरेज़ हो और बच्चों में भी यहीं संस्कार रोपने का सामर्थ्य और इच्छा रखती हो तो शायद भ्रष्टाचार रूपी दानव का समूल नाश संभव हो सकता है | हाँ इन कोशिश में बाहरी सुख-सुविधाओं को भले ही त्यागना पड़ सकता है मगर आतंरिक सुख-समाधान की जो अनुभूति होगी, वह अतुलनीय होगी, अमूल्य होगी |
भारती पंडित
इंदौर


Tuesday, August 16, 2011

alekh

गले- गले तक आया भ्रष्टाचार
अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में सारे देश में भ्रष्टाचार विरोधी लहर दौड़ रही है.. गाँव कस्बों तक से लोग सडकों पर उतारकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं | भ्रष्टाचार आज गले की फांस बन चुका है और भ्रष्ट नेताओं-अधिकारियों को सज़ा के दायरे में लाना इस आन्दोलन का पावन उद्देश्य है |
भ्रष्टाचार को उपरोक्त सन्दर्भ में केवल रूपए-पैसों के घोटाले , काला धन जमा करने आदि के रूप में देखा जा रहा है | मगर भ्रष्टाचार शब्द की व्याख्या करें तो यह भ्रष्ट + आचार से मिलकर बना है जिसका अर्थ है वह आचरण जो समाज अनुरूप न हो, जो गरिमा अनुरूप न हो , तर्क सम्मत न हो , पदानुरूप न हो वह समस्त आचरण भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है | अब यदि भ्रष्टाचार की विस्तृत और गूढ़ व्याख्या करते हुए अपने आसपास नज़र घुमा कर देखा जाए तो एक नन्हे बच्चे से लेकर एक वृद्ध तक सभी जीवन के हर पड़ाव पर किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार को सहते नज़र आते हैं |
बच्चा जब बड़ा होता है ,स्कूल जाता है तो वहां भ्रष्टाचार विविध रूप में सीना ताने खडा नज़र आता है | एक योग्य बच्चे को किसी प्रतियोगिता में केवल इसलिए भाग लेने से वंचित किया जाता है कि दूसरा बच्चा शिक्षक का कृपाभाजन है या वह शिक्षक दूसरे बच्चे के पालकों का कृपा भाजन है | ये नन्हे बच्चे तो बेचारे कदम-कदम पर पार्शेलिती ,फेवरेटिस्म जैसे हथियारों के शिकार बनाए जाते हैं | इस माहौल में बड़ा होता बच्चा जब आगे जाकर शिक्षकों का प्रतिकार करता है तो उसे इसी बात के लिए दण्डित किया जाता है | घर-परिवार की ही बात करें तो आपसी रंजिश, धन की असमानता , सास-बहू की लड़ाई का पहला शिकार बच्चे ही बनते हैं | क्या इस भ्रष्टाचार की रोकथाम संभव होगी ?
स्कूल से निकलकर बच्चे कॉलेज में जाते हैं | वहां भी दाखिले से लेकर परीक्षाओं तक क्या कुछ सहना नहीं पड़ता उन्हें ..शिक्षक की कोचिंग न जाए तो प्रेक्टिकल में अंक कम मिलते हैं..यदि सीनियर्स की दादागिरी न सहें तो कॉलेज में रहना मुश्किल .. आइडिया चोरी, प्रोजेक्ट की चोरी , नक़ल का दबाव .. इतना ही नहीं पी.एच.डी की डिग्री तक के लिए प्रोफेसर्स के घर का राशन-पानी, सब्जी भाजी लानी होती है | क्या इस भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा ?
पढ़-लिखकर बच्चे किसी संस्था में कार्य करने लगाते हैं | कई बार योग्य होने पर भी उन्हें महज इसलिए आगे नहीं बढ़ने दिया जाता कि वे अधिकारी की जी-हुजूरी नहीं करते या दफ्तर में हो रहे गलत को गलत कहने का साहस दिखाते है | ये बच्चे पहले-पहल तो जोश में अपने संस्कार, संस्कृति , मर्यादा पर अडिग रहकर ईमानदारी का दामन थामे रखने की पुरजोर कोशिश करता है मगर जब यह जिद लगातार घाटे का सौदा साबित होने लगती है तो वह भी धारा के साथ बहकर लाभ लेने में ही भलाई समझता है और इस तरह एक निहायत ईमानदार व्यक्ति भ्रष्ट आचरण अपनाने पर विवश कर दिया जाता है | क्या इस ईमानदारी को बनाए रखने के लिए समूची व्यवस्था को , कार्य प्रणाली को बदलने का साहस कोई अधिकारी दिखाता है ? शायद नहीं |
सरकारी दफ्तर हो, पुलिस स्टेशन हो , रेलवे रिजवेर्शन हो.. यहाँ तक कि धर्म स्थान के दर्शन क्यों न हो .. हर तरफ पैसों और ताकत का बोलबाला है | कमजोर और गरीब व्यक्ति को इस देश में जीने का अधिकार नहीं मिल रहा है | मजेदार बात तो यह है कि भगवान न करे यदि कोई व्यक्ति दुर्घटना का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उसके शव को अस्पताल से वापे लेने तक के लिए उसके परिजनों को नाकों चने चबाने पड़ते हैं |
आज हम भ्रष्टाचार की हवा में सांस लेने के आदी हो चुके हैं | भ्रष्टाचार हमारी रग- रग में खून बनकर दौड़ने लगा है | मेहनत की अपेक्षा चापलूसी , रिश्वत जैसे शोर्टकट तरक्की के आसान उपाय सिद्ध होते जा रहे हैं और इस अंधी दौड़ के हम इतने अभ्यस्त होते जा रहे हैं कि हमें अब किसी भी बात से फर्क नहीं पड़ता | हम तभी जागते हैं जब चोट हमारे निजी स्वार्थ पर की जाती है |
कोयले की इस दलाली में सभी के हाथ-मुंह रंगे हुए है अतः सुधार का सूत्र पकड़ना बड़ा ही कठिन है | बच्चों में संस्कार रोपने से पहले घर के बड़ों को आचरण सुधारने होगा, शिक्षकों को छात्रों के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करना होगा | कर्मचारियों को ईमानदार बनाए रखने के लिए ध्रुतराष्ट्र बने अधिकारियों को अपनी आँखों पर बंधी तृष्णा की पट्टी खोलकर समदृश्ता बनना होगा और सर्वोच्च सत्तासीन व्यक्तियों को समूची व्यवस्था को खंगालना होगा | सुधार की यह प्रक्रिया जटिल अवश्य है मगर कदाचित असंभव तो नहीं है |
भारती पंडित
इंदौर

Sunday, August 14, 2011

स्वतंत्रता के मायने


स्वतंत्रता दिवस की अल सुबह
मैं स्कूल जाने को थी तैयार ,
बस स्टॉप पर खड़ी थी
कर रही थी बस का इंतज़ार .
की एक बड़ा होता बच्चा
पास मेरे आया ,
छोटा सा एक तिरंगा
मेरे हाथों में थमाया .
बोला "दीदी स्कूल जा रही हो
आज के दिन ये तिरंगा क्यों भूले जा रही हो ..
तिरंगा देश की शान है ,
हर भारतीय की आन है ,
भारत की पहचान है ,
हम सबकी ये जान है "
उसका भाषण सुनकर मैं मुस्काई
हौले से थामा झंडा
और उससे मुखातिब हुई..
"बेटा बातें तो बड़ी अच्छी करते हो ,
संस्कारवान लगते हो ..
और क्या जानते हो स्वतंत्रता के बारे में ?
देश के सपूत लगाते हो
तभी देश के प्रति सुविचार रखते हो.."
मेरी बाते सुनकर वो बिदका
बोला " दीदी न करो टाइम खोटा..
समय है काम , काम है मोटा
ना मैं देश को जानूँ, न स्वतंत्रता पहचानूँ..
ये जो चार लाईने सुनाई है,
किसी नेता के भाषण से चुराई हैं ..
इसे सुनाने से बिक जाए झंडे,
इसीलिए मालिक ने सिखाई हैं..
देश स्वतन्त्र हो या परतंत्र
क्या फर्क पड़ता है ?
हम जैसों का पेट तो रोज़
गालियों से ही भरता है ..
बस साल में दो दिन आती है रौनक
जब तिरंगों की बिक्री होती है चकाचक
परिवार को मिलती है भूख से निजात
भाईयों के चेहरों की बदलती है रंगत ..
अगर यहीं स्वतंत्रता दिवस है तो
मैं चाहूँ यह हर रोज़ आए
बिकते रहे मेरे झंडे यूं ही
मेरे घर में भी रोटी महके,
मेरे घर भी लगे दाल को बघार
और मेरा परिवार भरपेट खाना खाए..

भारती पंडित

Tuesday, August 2, 2011

सिंघम

कल फिल्म सिंघम देखी . मुझे तो फिल्म बहुत अच्छी लगी क्योंकि यूं भी मैं एक्शन फ़िल्में शौक से देखती हूँ.. सार्थक विषयों पर बनी फ़िल्में मेरी पहली पसंद है और उससे भी बढ़कर यह कि फिल्म का हीरो मेरा पसंदीदा शख्स है.. मगर सिनेमा हाल की बात करू तो इवेनिंग शो में भी ढेरों युवा दर्शक मौजूद थे, फ्रेंड्स ( ओफकोर्स गर्ल फ्रेंड्स भी ) के साथ .. मगर एक सच्चे इंस्पेक्टर के द्वारा क़ानून तोड़ने वालों की जो हालत की जा रही थी, उस पर खुश होकर हाल में जो तालियाँ पड़ रही थी, जो उत्साह भरी ' वाह-वाह' गूँज रही थी उससे लगा कि आज सचमुच इन पोलिटीशियंस ने देश की जो हालत कर डाली है, उससे देश का युवा सबसे ज्यादा त्रस्त है.. अब तक हमारे दिलों में युवा की छवि ' शाइनिंग इंडिया ' के भरपूर पॅकेज पाने वाले, अपने बारे में सोचने वाले.. तनिक स्वार्थी से समूह के रूप में ही बनी हुई है.. मगर ऐसे युवा शायद नगण्य से प्रतिशत में है.. बाकी युवक अब भी देश का विकास चाहते है, देश की हालत को सुधारना चाहते हैं... बस कमी है एक साहसी, ईमानदारऔर कर्मठ नेता की .. जो उन्हें मार्गदर्शित कर सकें... स्वयं भ्रष्ट हुए बिना विकास में मार्ग को प्रशस्त कर सकें.. और उसी सपनों के नेता की छवि उन्हें सिंघम के इंस्पेक्टर " बाजीराव " में दिखी हो...
एक विचार और भी आया मन में .. कि आज नेता के बाद अभिनेता ही सबसे सक्षम स्थिति में हैं जो धन- प्रतिष्ठा से लदे हैं .. क्या उनका कर्त्तव्य नहीं बनता कि देश में व्याप्त इस अंधेर राज के खिलाफ कोई तो आवाज उठाएं? जिस धरती और उसके नागरिकों ने उन्हें सिर -माथे पर बिठाया है, उसके प्रति उनका क्या कोई कर्त्तव्य नहीं बनता ?

Sunday, July 17, 2011

चोरी तेरे कितने रूप


बचपन से सुनते आए हैं कि चोरी करना पाप है... चोरी से ही नहीं , चोरो से भी डर लगता आया है हमेशा ... पर उस समय वही पता था कि चोरी वस्तुओं की होती है.. यानि रुपयों की, जूतों की , कपड़ो की ..... थोड़ी बड़ी हुई, कॉलेज में प्रोजेक्ट करते हुए मेरे सारे आइडियाज मेरी सहेली ने टाप लिए और मुझसे ज्यादा अंक ले आई तो पता चला कि चोरी आपके विचारों की भी हो सकती है.. ऐसी ही चोरी हमारे एक परिचित भी करने के आदी हैं जो दूसरों के तकिया कलाम, मूल्यवान कथन कुशलता से चुरा लेते हैं और अपनी बातचीत में उनका इस कदर उपयोग करते हैं कि वे कथन उनके अपने कहे ही बन जाते है.
जब लेखन के क्षेत्र में उतरी तो पता चला कि चोरी का एक प्रकार रचनाओं की चोरी भी होता है.. वेब दुनिया पर ज्योतिष विषय पर छपने वाले मेरे ढेरों लेख इंदौर के लोकल समाचार पत्रों में यत्र-तत्र छापे हुए पाए जाने लगे और प्रायः परचून की दुकान से आये सामान के माध्यम से मुझे उनके दर्शन होने लगे. मैं तिलमिलाई तो बहुत .. संपादकों को फोन भी किया .. पर बस एक सॉरी उछाल दिया गया मेरी ओर..
अभी हाल ही में मुझे पता चला है कि संस्थाओं की सदस्यता , कार्यकर्ता होने का क्रेडिट भी चोरी किया जाने लगा है. हमारी संस्था जो समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करती है, उसका नाम हमारे एक परिचित बड़ी तन्मयता से अपने निजी लाभ के लिए उपयोग में ले रहे है और एक बार दी गई छोटी सी दान राशि के एवज में स्वयं को संस्था का सक्रिय कार्यकर्ता बताकर इनाम आदि भी जीत रहे हैं. अब प्रश्न यह है कि ऐसे लोगो के चलते हमारे जमीनी कार्यकर्ताओं के मन पर क्या बीत रही होगी , जो पहले दिन से संस्था से जुड़े हुए हैं और बिना किसी लाभ का गणित बिठाए निष्काम सेवा कार्य को अंजाम दे रहे हैं? मेरा रोष उन संस्थाओं पर भी हैं जो इनाम देने से पहले प्रतिभागी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की जांच तक नहीं करती हैं और खैरात जैसे इनाम बाँट देती हैं. उनकी विश्वसनीयता कितनी खोखली है?
खैर तो हम बात कर रहे थे चोरी की .. तो साथियों , चोरी के इतने प्रकारों से मेरा वास्ता पड़ चुका है..ये लेख लिखते हुए ही पता चला कि पार्किंग में रखी मेरे बेटे की साइकिल अभी-अभी चोरी हो गई है.. अब ज़रा स्थिति का जायजा ले लूं.. फिर मिलते हैं..

भारती पंडित

चोरी तेरे कितने रूप


बचपन से सुनते आए हैं कि चोरी करना पाप है... चोरी से ही नहीं , चोरो से भी डर लगता आया है हमेशा ... पर उस समय वही पता था कि चोरी वस्तुओं की होती है.. यानि रुपयों की, जूतों की , कपड़ो की ..... थोड़ी बड़ी हुई, कॉलेज में प्रोजेक्ट करते हुए मेरे सारे आइडियाज मेरी सहेली ने टाप लिए और मुझसे ज्यादा अंक ले आई तो पता चला कि चोरी आपके विचारों की भी हो सकती है.. ऐसी ही चोरी हमारे एक परिचित भी करने के आदी हैं जो दूसरों के तकिया कलाम, मूल्यवान कथन कुशलता से चुरा लेते हैं और अपनी बातचीत में उनका इस कदर उपयोग करते हैं कि वे कथन उनके अपने कहे ही बन जाते है.
जब लेखन के क्षेत्र में उतरी तो पता चला कि चोरी का एक प्रकार रचनाओं की चोरी भी होता है.. वेब दुनिया पर ज्योतिष विषय पर छपने वाले मेरे ढेरों लेख इंदौर के लोकल समाचार पत्रों में यत्र-तत्र छापे हुए पाए जाने लगे और प्रायः परचून की दुकान से आये सामान के माध्यम से मुझे उनके दर्शन होने लगे. मैं तिलमिलाई तो बहुत .. संपादकों को फोन भी किया .. पर बस एक सॉरी उछाल दिया गया मेरी ओर..
अभी हाल ही में मुझे पता चला है कि संस्थाओं की सदस्यता , कार्यकर्ता होने का क्रेडिट भी चोरी किया जाने लगा है. हमारी संस्था जो समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करती है, उसका नाम हमारे एक परिचित बड़ी तन्मयता से अपने निजी लाभ के लिए उपयोग में ले रहे है और एक बार दी गई छोटी सी दान राशि के एवज में स्वयं को संस्था का सक्रिय कार्यकर्ता बताकर इनाम आदि भी जीत रहे हैं. अब प्रश्न यह है कि ऐसे लोगो के चलते हमारे जमीनी कार्यकर्ताओं के मन पर क्या बीत रही होगी , जो पहले दिन से संस्था से जुड़े हुए हैं और बिना किसी लाभ का गणित बिठाए निष्काम सेवा कार्य को अंजाम दे रहे हैं? मेरा रोष उन संस्थाओं पर भी हैं जो इनाम देने से पहले प्रतिभागी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की जांच तक नहीं करती हैं और खैरात जैसे इनाम बाँट देती हैं. उनकी विश्वसनीयता कितनी खोखली है?
खैर तो हम बात कर रहे थे चोरी की .. तो साथियों , चोरी के इतने प्रकारों से मेरा वास्ता पड़ चुका है..ये लेख लिखते हुए ही पता चला कि पार्किंग में रखी मेरे बेटे की साइकिल अभी-अभी चोरी हो गई है.. अब ज़रा स्थिति का जायजा ले लूं.. फिर मिलते हैं..

भारती पंडित

Saturday, July 9, 2011

बात ईश्वर की है.....

कल रात मुझे भगवान पर बड़ी दया आई. आप सोचोगे, ये मुझे क्या हो गया है..मेरी इतनी हिम्मत कि भगवान को दया का पात्र बनाऊँ? कल रात पड़ोस के मंदिर में रामायण पाठ चल रहा था.. वो भी बड़ी वोल्यूम वाला भोंपू लगाकर.. होता अक्सर यही है कि भोंपू के आगे सारे कनसुरे बैठकर बेसुरा राग अलापते हैं और अडोस-पड़ोस वालों को उसे झेलना मजबूरी बन जाता है..
अब बात ईश्वर की है अतः आवाज कम कर के रखो, यह कहकर बर्र के छत्ते में हाथ कौन डाले, सो अपने अपने घरों में भुनभुनाते बैठे रहते है.. हां तो बात चल रही थी भगवान की.. मेरे मन में यही विचार आया कि हम लोग इतनी दूर होकर भी आवाज से इतने परेशान हो रहे है, तो कुछ कदम पर बैठा भगवान बेचारा कितना परेशान हो रहा होगा.. और यह परेशानी भी एक दिन की नहीं, मोहल्ले में करीब २० धर्म स्थान होंगे, और हरेक जैसे एक दूसरे की होड़ में भोंपू बजाता ही रहता है.. मेरे मन में यह ख्याल भी आया कि ऐसा तो नहीं कि इस ध्वनि प्रदूषण के कारण भगवान के कर्ण यंत्रों ने काम करना बंद कर दिया हो .. इसलिए वे भूख,गरीबी,भ्रष्टाचार ,वेदना से पीड़ित जनता की आर्त पुकार भी नहीं सुन पा रहे हो? और नाराज होकर " जा, न मैंने कुछ सुना , न देखा " कहकर आंख-कान बंद कर बैठ गए हो?
वैसे आज तक यही सुना है कि प्रार्थना तो मन से की जाती है, तो ये भोंपू और ढोल-धमाको का हुड़दंग प्रार्थना के लिए क्यों ? मैं तो आजतक नहीं समझ पाई... आप को पता हो तो जरुर बताए ....
भारती पंडित

Saturday, June 25, 2011

अपराधों में लिप्त होती लड़कियां


इंदौर के बहुचर्चित तिहरे हत्याकांड का पर्दाफाश होते ही आँखे फटी की फटी रह गई | हालांकि बड़े शहरों के लिए ये हत्याएं भी मानो दिनचर्या का ही एक हिस्सा बन गई है, जिन्हें सुबह पढ़कर शाम को भुला दिया जाता है.. मगर इस बार दिल दहलाने वाली बात यह थी कि सारे हत्याकांड की सूत्रधार थी कुल जमा २३-२४ वर्ष की एक युवा लड़की जिसने बड़ी कुशलता से अपने अपराधिक पृष्ठभूमि वाले पुरुष मित्रों के साथ मिलकर इस पाशविक खेल को अंजाम दिया | इस खूनी खेल को खेलते समय उसका मन जरा भी नहीं हिचकिचाया | यहाँ तक कि अपने साथियों को क़त्ल करते छोड़ वह कीमती सामान बटोरती रही |
नारी के सुकोमलता, दिव्यता और स्नेहशीलता के कसीदे पढ़नेवाले कवियों की लेखनी यह पढ़कर कहीं तो तिलमिलाई होगी, नव यौवन को कली के उपमा देने वाले लेखकों की आँखें जरुर इस बर्बरता को देख डबडबाई होंगी |
पिछले ५-६ वर्षों में स्वतंत्रता के नाम पर जो भयानाक उबाल समाज में आया है , उसने संस्कार-सभ्यता के आवरण की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं | उच्च -आभिज्यात्य वर्ग तो पहले ही बंधन मुक्त था , तेजी से बढ़ते जीवन स्तर ने मध्यम वर्ग के लिए भी बंधन मुक्त नीलाकाश खोल दिया | पहले यह मुक्ति केवल लड़कों के लिए ही स्वीकार्य थी, धीरे-धीरे लड़कियों को भी समस्त वर्जनाओं से मुक्त करके पतंग की तरह मुक्ताकाश में हिलोरे लेने के लिए छोड़ दिया जाने लगा | पढ़ने के नाम पर, नौकरी के नाम पर हजारों लड़कियां बड़े शहरों का रुख करती है, होस्टल में रहती हैं और उनमें से अधिंकाश देर रात की पार्टियों, क्लब, नशा ,बायफ्रेंड्स को दिनचर्या का हिस्सा बना लेती हैं | माता-पिता अपनी पेट की रोटी में कटौती करके उन्हें मनमाना रुपया भेजते हैं एक विश्वास के बल पर ..मगर कभी उस विश्वास पर जरा सा अविश्वास करके यह जानने की कोशिश नहीं करते कि कहीं उनके विश्वास को छला तो नहीं जा रहा ?
जिस नारी को घर बनने वाली कहा जाता है, जिसे स्नेह और धैर्य का पर्याय माना जाता है , वह अचानक कैसे इतनी लालसाओं का शिकार बन गई कि अकूत धन की चाह लिए हत्या जैसा अपराध करने में भी न हिचकिचाई हो ? क्या उसके जन्म पर उसके कानों में संस्कार रूपी मन्त्र नहीं फूँका गया होगा ? क्या माँ-दादी के स्नेहिल छाया से उसने कुछ नहीं सीखा होगा ? फिर गलती कहाँ हो गई ?
कहीं गलती की शुरुवात तभी तो नहीं हुई , जब कामकाजी माँ ने गोद के बच्चे को क्रेश के हवाले किया था .. या फिर तब जब गुड्डे-गुड़ियों से खेलने की उम्र में बच्चे के हाथों में महंगे मोबाइल पकड़ा दिए गए .. या फिर तब जब पंचंतंत्र की पुस्तक छीनकर उन्हें बुद्धू बक्से के सामने बिठा दिया गया ?
पहले धन केवल आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के लिए कमाया जाता था | जिसे भाग्य व प्रयास से जितना मिल जाता था, वह उसमे खुश रहता था .. घर की स्त्री उपलब्ध पैसों में न केवल घर चलाती थी, वरन आड़े वक्त के लिए कुछ रूपया बचा भी लेती थी ..परिवार के हित के लिए उसका स्व हित कभी भी आड़े नहीं आता था | फिर अचानक स्त्री स्वतन्त्र हो गई , पढ़ा-लिखकर ढेर सारा धन कमाने लगी | बाजार भी विज्ञापनों के माध्यम से व्यापक पैर पसारता हुआ व्यक्ति को विलासिता के जाल में उलझाने लगा और उसके दिमाग में यह ठूंसने लगा कि अगर ये सुविधाएं पास नहीं तो जीवन का कोई अर्थ नहीं ..अब जब वार मर्म पर था तो इससे कोमलांगी नारी भला कैसे बचा पाती? कामनाओं ने लालसा का रूप लिया, और लालसाएं तृष्णा का रूप धरकर दिलो दिमाग पर छा गई | उसी से जन्म हुआ येन-केन प्रकारेण अपनी इच्छा पूर्ति कर लेने की युक्ति का .. अब जब घर-घर में माँ इस लोभ वृक्ष का भार धो रही हो तो बेटी को राह कौन दिखाए ? रहा-सहा गणित एकल होते परिवारों ने पूरा कर दिया | माता-पिता से संवाद नहीं , दादा-दादी का साथ नहीं .. कौन संस्कारों का पाठ पढाए ? कौन रोल मोडल बनाकर बच्चों को सही राह दिखाए ? पहले तो अडोस-पड़ोस के सम्बन्ध ही इतने आत्मीय और मजबूत हुआ करते थे कि मोहल्ले भर के जवान होते लडके - लड़कियों पर अड़ोसी-पड़ोसी ही नज़र रख लिया करते थे | वक्त पड़ने पर कान उमेठकर दो चांटे भी लग दिया करते थे ..
आज गली मोहल्ले की बात छोड़ो, अगल-बगल लगे फ्लेट में भी लोग एक दूसरे का नाम-परिचय नहीं जानते | शीशे की चारदीवारी में कैद संवेदनाहीन बुत भला किसी की मदद को कैसे आगे बढ़ेंगे ?
इस सारे प्रकरण में एक और बात बेतरहा खटकी .. वो यह कि लड़कियों के लिए विवाह का एकमात्र मतलब केवल सुख-सुविधायुक्त जीवन जीना रहा गया है | यहाँ दिल का , भावनाओं का कोई बंधन नहीं है .. पति का सम्मानित-स्तरीय होना सब कुछ पैसे की चमक के आगे गौण है.. प्रधान है बस रूपया और उसके लिए कुछ भी स्वीकार्य है.. यहाँ तक कि अपराधिक पृष्ठभूमि वाला पति भी ..
जो हो रहा है , वह हम सभी को हमारी कुम्भकर्णी नींद से झिंझोड़कर जगाने के लिए काफी है..
अगर अब भी नहीं जागेंगे, ..तो शायद बहुत देर हो जाएगी .. सभ्यता और संस्कारों की थाती में भयानक विस्फोटों की शृंखला के बाद जब हम जागेंगे तो सब कुछ बिखर चुका होगा ..किर्च-किर्च हो चुका होगा ...इतना कि उसे जोड़कर पुनः समाज की रचना करना असंभव ही होगा ..
भारती पंडित
इंदौर

Monday, June 20, 2011

पितृ दिवस

पितृ दिवस पर दिवंगत पिताजी की स्मृति में दो कविताएँ ..जिन पौधों को उन्होंने रोपा था, उन्हें पुष्पित होते देखने से पहले ही वे चल बसे..

१. पिता का साया

खुशहाल घर पर पिता का साया
मानो आँगन की धूप में बरगद की छाया
छाया जो सहती है सूरज की तपन
ताकि घर को न छू पे कोई अगन
शाखाओं सी फैली पिता की वो बाँहे
जो रोकती है हरेक संकट की राहें
फौलाद सा बना सीना पिता का
जिससे लिपट बोझ हल्का हो जां का
जड़ों सी गहरी सोच है पिता की
पीढी दर पीढी संस्कार तराशती
मिलती रहे बच्चों को ये इनायत
हर घर पर ये साया रहे सलामत

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२.याद आती है पिताजी की सूनी आँखें

आजकल अक्सर याद आती है
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थी देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।

आजकल अक्सर याद आता है,
पिताजी का तमतमाया चेहरा,
जो बिफर-बिफर पड़ता था,
मेरे देर से घर लौटने पर।

अब भली लगती हैं,
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुन-सुन कभी,
उबल-उबल जाता था मैं।

आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी,
जो कभी हुआ करती थी,
उलझन का सामान मेरी।

अक्सर हैरान होता हूँ इस बदलाव पर
जब उनके रूप में खुद को पाता हूँ।
क्योंकि अब मेरा अपना बेटा
पूरे अट्ठारह का हो गया है।
भारती पंडित

Thursday, June 9, 2011

बाबा का दरबार या श्रद्धा का व्यवसाय

कल ही शिर्डी से वापस आई . बाबा के दरबार में जाने का हमेशा ही चाव रहता है.. मगर इस बार चार साल बाद जाना हुआ.. और एक बात तीव्रता से अनुभव हुई कि चमत्कार को सभी नमस्कार करते हैं.. जैसे जैसे भक्तों के मन में देवता का स्थान बढ़ने लगता है, मंदिर के गुम्बद में स्वर्ण की मात्रा बढ़ने लगती है और मंदिर की दीवारों को भी इस कदर स्वर्ण जडित कर दिया जाता है कि गहन सुरक्षा में भगवान कही भक्तों से बहुत दूर रह जाते है.. इस बार शिर्डी में भयंकर भीड़ थी, दूर दूर से भक्त आए थे .. गरीब से गरीब और अमीर से अमीर बाबा के एक बार दर्शन की आस लिए उत्सुक था दरबार में हाजिरी लगाने के लिए.. उनमें से एक मैं भी थी .. कई सारी मन्नते थी जो बाबा ने पिछले वर्षों में पूरी की थी.. कई सारी बातें थी जो बाबा से कहनी थी..मगर दो घंटे निरंतर पसीना बहाने के बाद जब बाबा के समीप जाने का मौका मिला.तो उस मूर्ति की भव्यता को नयनों में भरने से पहले ही पुलिसवाले ने धकिया दिया.. केवल मेरे साथ ही नहीं, हरेक भक्त के साथ ऐसा ही व्यवहार हो रहा था .. यहाँ तक कि लाया गया प्रसाद और फूल आदि भी समाधि को स्पर्श तक कराने की जरुरत नहीं समझी जा रही थी .. मेरा बेटा तो रो पड़ा कि मैं बाबा को ठीक से देख भी नहीं पाया..
मंदिर से बाहर निकलते हुए मन में एक ही सवाल उठ रहा था.. क्या श्रद्धा का इस तरह का व्यवसायीकरण उचित है? क्या बाबा का मन भक्तों से दूर रहकर या अपने भक्तों को यूं धकियाते देखकर दुखता नहीं होगा ? कितने गरीब तो बड़ी मुश्किल से किराए की जुगाड़ करके आए थे .. उन्हें क्या इस तरह के दर्शनों की आशा होगी ? एक सवाल यह भी उठा कि जब प्रसाद बाबा को चढ़ाना ही नहीं है तो बाहर प्रसाद के नाम मनमानी लूट मचाने की आजादी क्यों दी जाती है ? ५०० रुपये देकर वी.आई.पी. दर्शन भी मेरी समझ से बाहर थे..
कुल मिलाकर इस बार न तो मैंने बाबा से कुछ माँगा , ना ही अगली बार फिर आने का मौका देने को कहा.. मुझे यही लगा कि इससे तो अच्छा है अपने घर के मंदिर में या शहर के मंदिर में जितना चाहो, उतनी देर बाबा के साथ वक्त बिताना .. वेतन का जो हिस्सा उनके नाम निकल कर रखती हूँ, उसे किसी गरीब को दान करना .. शायद उनमे मुझे मेरे भगवान के दर्शन हो जाए..यूं भी मन में हमेशा बसने वाले बाबा का दर्शन तो हमेशा सुलभ है..


Friday, May 20, 2011

अनुभव


कुछ जरुरी काम निपटा कर ग्वालियर से इंदौर लौट रही थी | पतिदेव ने जल्दबाजी में ऐसी बस में बिठा दिया था जिसने रात भर यहाँ-वहां रुक-रुक कर पूरी जान हलकान कर दी थी | सुबह होते ही वह बस ट्रेवल्स बस न रहकर यात्री बस हो गई थी जिसमे ड्राईवर जरा से रुपये बनाने के लिए देवास, शाजापुर ,इंदौर की लोकल सवारियां बिठाता जा रहा था| कल रात को जो सीट ४५० रुपये में खरीदी थी, अब मुझे मुंह चिढा रही थी| हर आने-जाने वाला जगह देखकर उसपर काबिज होना चाह रहा था | मेरे न चाहते हुए भी आखिरकार दो स्त्रियाँ धम से बैठ ही गई और धीरे-धीरे यूं पसरी कि वे प्रमुख यात्री और मैं उधारी की सीट वाली लगने लगी | मन में ट्रेवल्स वालों के लालच, गैर जिम्मेदारी के प्रति गुस्सा था और थकान ने हालत खराब कर दी थी | तभी देवास से एक महिला चढी जो महिला पुलिस की नीली ड्रेस में थी | वह भी जरा सी जगह देखकर मेरी सीट पर सट गई | अब मुझमें प्रतिरोध की शक्ति बची ही नहीं थी | तभी कंडक्टर टिकिट के रुपये उस महिला से माँगने आया | वह तेवर दिखाती हुई बोले, " जानते नहीं पुलिस स्टाफ में से हूँ? सरकारी काम से जा रही हूं | मुझसे रुपये मांगेगा ? " कंडक्टर चुप हो गया मगर मुझसे रहा नहीं गया | मैंने कहा , "पुलिसवालों को तो क़ानून का पालन करना और करवाना चाहिए | आप सरकारी काम पर जा रही हो तो उसके लिए आपको वेतन और भत्ता मिलता है | फिर यह गाड़ी सरकारी गाड़ी नहीं है.. तो फिर वर्दी की धौन्स क्यों ? ऐसे तो भ्रष्टाचार और बढेगा | " वह कटु शब्दों में बोली, आपको इतनी चिंता है तो मेरा किराया आप दे दो | भ्रष्टाचार बढ़ने या घटने का ठेका मैंने नहीं लिया हुआ है | " मैं चुप रह गई |
जरा ही देर में शिप्रा नदी का सूखा पुल आया | मटमैले पत्थरों से अटी पडी वह नदी मानों अपने सूखे नेत्रों से अपने अस्तित्व को बचाने की गुहार सी लगाती दिखी | नदी आते ही वह महिला पुलिस उठी और अपनी पर्स में से ५ रुपये का सिक्का निकालकर नदी में उछाल दिया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी | मुझे हंसी आई सिक्के के दूसरे रूप को देखकर.. जीवित लोगों का हक़ मारकर यदि उस नदी को रूपया चढ़ा भी दिया तो क्या वह खुश होकर आपके घर में बरकत दे सकती है ? हम कब अपने विचार, व्यवहार और धारणाएं बदलेंगे?
भारती पंडित
इंदौर

Sunday, May 15, 2011

लघुकथा

अगला जन्म


सड़क के किनारे बनी मजदूर बस्ती में वह अपने टूटे-फूटे झोंपड़े में बच्चों को बहला रही थी| भोजन के नाम पर बर्तन में चावल के चंद दाने थे | सोचती थी बातों के बहलाव-फुसलाव के साथ परोसे गए चावल उनका पेट भरने में कामयाब हो जाएंगे | इतने में बड़ा बेटा बोला ," माँ , क्या अगला जन्म भी होता है?"

वह बोली ,"हाँ बेटा , सुना तो है , क्यों ?

बेटा बोला ," फिर तो मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा की अगले जन्म में मुझे इंसान नहीं, सामने वाले बंगले का कुत्ता बनाना | पता है माँ , वह कुत्ता रोज़ दूध-बिस्कुट, अंडे-ब्रेड-मांस खाता है | रोज़ महंगे शैम्पू से नहाता है और कार में भी घूमता है | और तो और बीमार पड़ जाने पर डॉक्टर उसे खुद देखने आते हैं | कुत्ता होकर कैसी ठाठ की जिन्दगी है न उसकी ?"

उसकी आँखे फटी की फटी रहा गई थी | कानों में बच्चे के शब्द भांय-भांय कर रहे थे| उसे लगा मानो सामने बैठा बच्चा अचानक कुत्ते की शक्ल का हो गया और भौं-भौं करता हुआ सामने वाले बंगले में घुस गया |

भारती पंडित

इंदौर


Friday, May 13, 2011

विवाह समारोह: बचपन की यादें

पिछले दिनों एक विवाह में जाने का अवसर मिला. आजकल विवाह यानि क्या .. शान-शौकत और वैभव का खुला प्रदर्शन होता है. ऐसा ही विवाह वह भी था. बारातियों को एक महंगे होटल में ठहराया गया था, घंटी बजाते ही वेटर सेवा में तत्पर.. चाय-नाश्ता कमरे में ही.. हर परिवार को एक भव्य कमरा अलोट किया गया था. मजे से सोना-नहाना-तैयार होना . सारी सुविधाएं कमरे में थी. केवल मुख्य कार्यक्रमों के लिए कॉमन हाल में जाना था. यही नहीं , शहर घूमने के लिए गाडी की व्यवस्था भी मेजबान की तरफ से थी ताकि घूमने-घामने के शौकीन लोग यदि कार्यक्रम में रूचि न रखते हो तो भ्रमण पर निकल जाए. सब कुछ था मगर फिर भी कुछ मिसिंग सा था. वह त्योहार -उत्सव सा माहौल, वह हंसी- चुहल, रिश्तेदारों की बातचीत जो वास्तव में इस प्रकार के पारिवारिक समारोह में होनी चाहिए वह कहीं भी नहीं थी. यूं लग रहा था मानो किसी कंपनी द्वारा दिए गए टूर पॅकेज का आनंद उठाने आए हैं सभी लोग..
मुझे अनायास ही बचपन की शादियों का स्मरण हो आया. मैं ठेठ मराठी परिवार में जन्मी थी. किसी भी रिश्तेदार के यहाँ शादी होती थी तो छह महीने पहले घर में हलचल मच जाती थी. घर की परिस्थिति साधारण होने से ऐसे किसी भी अवसर पर बाहर पहने जाने वाले कपड़ों से तैयारी करनी शुरू की जाती थी. फिर लेन-देन के बारे में विचार होता था. हम बच्चों के लिए बारात में जाना यानि जलेबी और मोतीचूर के लड्डुओं की दावत जो केवल शादी आदि समारोह में ही नसीब हो पाती थी. आठ दिन पहले से शादी वाले घर में मेहमानों का जमघट लग जाता था. घर की बुजुर्ग सी ताई-मामी आदि रसोई का जिम्मा सम्हाल लेती थी और मेजबान स्त्री को अन्य कामों के लिए मुक्त कर देती थी. घर के आंगन में पंगत की पंगत जीमने बैठती थी.. घर की साफ़ -सफाई और कपडे आदि धोने का जिम्मा किशोर होती लड़कियों को सौप दिया जाता था. मोहल्ले का चित्रकार घर के सारे दरवाजों पर वन्दनवार बना जाता था. फिर उस पर नारियल वाला तोरण लटकाया जाता था , जो देखे उसे पता चले कि इस घर में जल्दी ही विवाह उत्सव आयोजित होने वाला है.
दोपहर भर शादी की तैयारी के साथ गपशप चलती रहती.. सबकी बहू-बेटियों की पूछताछ के साथ इसकी उसकी खामियां भी निकाली जाती. मामी-चाची-भाभी अपने अपने पतियों की शिकायत करती और उम्र और रिश्ते में बड़ी स्त्रियाँ उन्हें अच्छी डांट पिलाती.
सुहाग गीत, मंद शहनाई , ढोलक की थाप से घर गूंजने लगता. मेहंदी गलाई जाती, बारीक सींक की सहायता से उसे दूल्हे/दुल्हन के हाथों में लगाया जाता. बाकी सारी औरते भी अपने हाथ रंग लेती. उस समय न तो किसी कोन आदि का प्रचलन था और न ही ब्यूटी पार्लर के अभ्यस्त हाथ की दरकार... जो कुछ उपलब्ध होता था, उसी में खुशी मना ली जाती थी.
शादी के निमंत्रण की भी बड़ी अनोखी सी प्रथा थी. अत्यंत निकट के रिश्तेदारों को तो कई दिन पहले का आमंत्रण रहता था. शहर के अन्य निकटस्थों को सीमान्त पूजन और विवाह दो दिन बुलाया जाता था. अन्य को केवल विवाह और भोजन का और केवल साधारण परिचितों को ' विवाह की अक्षत डालने का ' निमंत्रण दिया जाता था. विवाह लगने के बाद ऐसे लोगों को एक लड्डू, पेढा या पेठा खाकर विदा होना पड़ता था. कई बार तो निमंत्रण पत्र पर 'केवल दो व्यक्तियों को भोजन के लिए आना है ' ऐसा भी लिखा मिल जाता था. ऐसे में दस लोगों वाले घर में विवाह भोजन के लिए किसका चुनाव हो यह भी विवाद का विषय बन जाता था. जब ऐसी कोई विवाह पत्रिका घर में आती थी तो बड़ी निराशा होती थी.
विवाह समारोह में भी गीत-संगीत का बड़ा महत्व रहता था. वरमाला के समय मंगलाष्टक गाए जाते थे, तो भोजन के समय 'विहीण ' गाने की प्रथा थी. कुल मिलाकर सारा माहौल बड़ा जीवंत रहता था. ना ज्यादा चकाचौंध, ना कोई शो-ऑफ .. जिसकी साडी ज्यादा भारी, वह ज्यादा शान दिखाती. वही कई बार कोई मामी अपनी साडी और जेवर किसी कमजोर स्तर की भांजी को देती भी नजर आ जाती.
विवाह के बाद भी ख़ास मेहमान कुछ दिन रुकते, बिखरा घर समेटते और लेन-देन का हिसाब भी करवाते. इस तरह मन में मधुर स्मृतियों के साथ इस भावना के साथ सभी विदा लेते कि हमारे घर की शादी में भी ऐसा ही सहयोग हमें प्राप्त होगा. स्नेह, सहयोग और सद्भावना का अनूठा उधाहरण बन जाती थी ऐसी शादियाँ ..
अब सब कुछ रेडीमेड हो गया है.. सारी व्यवस्था केटरिंग और इवेंट मेनेजर के सुपुर्द कर दी जाती है, विवाह से एक रात पहले मेहमान फ्लाईट से आते हैं, कोई भी किसी तरह की असुविधा नहीं चाहता अतः साथ -साथ रहने और गपशप करने का सवाल ही नहीं उठता . बस समारोह अटेंड किया, भारी-भरकम उपहार दिया , रिश्तेदारों को हेलो- हाय किया, भोजन के बाद शाम की फ्लाईट से रवानगी..
बेहतरीन व्यवस्थाएं हैं, शान-शौकत है, चकाचौंध है.. शोर-शराबा भी है.. मगर जिन मूलभूत उद्येश्यों को लेकर इन समारोहों की नीव रखी गई थी.. वे पूरी तरह मिसिंग ही रहते है.. सब कुछ मशीनी.. क्या ऐसे किसी समारोह में भावनाओं की कोई भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है?
भारती पंडित
इंदौर

Thursday, May 5, 2011

माँ

मदर्स डे पर माँ को आदरांजली
कविता
माँ

माँ
तुम जो चल पडी अनंत यात्रा के पथ पर
सुगंध विहीन हो गए गुलाब सारे
विलीन हो गई पाजेब की झनकार
और मूक हो गए सरगम के सातों स्वर
अब भी जब यादों के पंछी फड़फड़ाते हैं अपने पंख
खोलकर झरोखे स्मृति के
तो लगता है तुम यही हो
मेरे नजदीक , बिलकुल समीप
बिंदिया सजाती , चूड़ी खनकाती
तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाती
सांध्य दीप जलाती
मेरी पसंद का भोजन बनाती
लाड-मनुहार से मुझे खिलाती
हां यहीं तो थी तुम
गीता ज्ञान मुझे बताती
संस्कारों का पाठ पढ़ाती
मेरी नासमझी को अपनी
समझा से संवारती
मेरी विदाई पर आंसू बहाती
मेरे बिखेरे चावल अपने
आंचल में संजोती
हां यही तो थी तुम
और शायद आज भी यहीं हो
मेरी स्मृति में , संस्कारों में
मेरी उपलब्धियों में, मेरे विचारों में
मेरी हंसी में , मेरे गम में
मेरे अस्तित्व के हर रोम में
रची बसी बस तुम ही हो
हाँ माँ ,
तुम न होकर भी यहीं हो
क्योंकि अपने रूप में रचा है
तुमने मुझे
अपनी परछाई, अपनी पहचान बनाकर

भारती पंडित

Wednesday, March 30, 2011

लघुकथाएँ

टोटका
सुबह-सुबह घूमने जाने वाले व्यक्ति चौराहे पर भीड़ लगाकर खड़े हो गए थे | कल अमावस्या की रात थी और इसका साक्षी था चौराहे पर पडा बड़ा-सा कुम्हड़े का फल.. जिसपर ढेर - सा सिन्दूर लगा हुआ था, उसके अंदर नींबू काटकर रखा गया था, अंदर ही कुछ अभिमंत्रित लौंगे भी रखी हुई थी |
स्पष्ट था की अमावस्या की रात को अपने घर की अलाय-बलाय उतारने के लिए किसी ने जबरदस्त टोटका किया था और उसका उतारा चौराहे पर लाकर पटक दिया था |
लोग खड़े-खड़े खुसुर-फुसुर कर रहे थे ... रास्ता बुहारने आई जमादारनी भी "ना बाबा ना , मैं बाल-बच्चों वाली हूँ.." कहकर उसे बुहारने से इनकार कर गई | " अभी रास्ते पर चहल-पहल हो जाएगी, बच्चे भी खेलेंगे-कूदेंगे.. यदि किसी ने इसे छू लिया तो ?" सभी यहाँ सोचकर उलझन में थे कि एक अधनंगा व्यक्ति भीड़ को चीरकर घुस आया | दो दिन से भूखे उसके शरीर में उस कुम्हड़े को देखते ही फुर्ती आ गई | आँखे चमक उठी और कोई
कुछ समझता, इससे पहले ही उसने झपटकर कुम्हडा उठाया , उसपर नींबू निचोड़ा और गपागप खाने लगा... लोगों की आँखे फटी रह गई ..
उसके पेट की भूख का टोटका अमावस्या के टोटके पर भारी पड़ गया था |



नियति
वह लोगों के घर में साफ़-सफाई का काम करती थी | पति दिन भर मजदूरी करता , शाम को नशे में धुत घर आता .. अपनी मनमानी करता ..कभी उसे बिछौने की तरह सलवटों में बदलकर तो कभी रुई की तरह धुनकर ... वह मन ही मन उससे घृणा करती थी | करवा चौथ आती तो सास जबरन उसे सुहाग जोड़ा पहनने को कहती , सज-संवरकर व्रत करके पति की लंबी आयु की प्रार्थना करने को कहती .. वह यह सब करना न चाहती पर उससे जबरन करवाया जाता |
एक दिन उसका शराबी पति ट्रक के नीचे आक़र मर गया | उसे मानो नरक से मुक्ति मिली | आज वह खूब सजना -संवारना चाहती थी, हंसना खिलखिलाना चाहती थी पर उसके तन पर लपेट दिया गया सफ़ेद लिबास और होंठो पर जड़ दी गई खामोशी.. चुप्पी ..
वाह री नियति ......




या देवी सर्व भूतेषु

पूजाघर में नौ देवियों के भव्य चित्र लगे हुए थे | नवरात्रि चल रही थी , त्रिपाठी जी शतचंडी के पाठ में व्यस्त थे | मंत्रोच्चार से सारा घर गूँज रहा था -" ओंम एँ ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चेइ नमः ॥"
अचानक उनकी पत्नी ने उन्हें बाहर बुलाया ,, सुनिए , बहू की सोनोग्राफी की रिपोर्ट आ गई है.. बच्ची है पेट में
" तो सोचना क्या है,, हटाओ उसे.. हमें बेटी नहीं चाहिए.."
"मगर बहू न मानी तो ?"
" राजेश से कहो, लगाए दो हाथ कसके ॥ फिर भी न माने तो छोड़ आए मायके॥ कहना वहीं रहे सारी जिन्दगी .."
आदेश देकर वे पुनः जाप में व्यस्त हो गए .. ऊँ एम् ....
तस्वीर में देवी की आँखे विस्फारित मुद्रा में उन्हें देख रही थीं |

भारती पंडित
इंदौर

Friday, March 18, 2011

kavita

इस बार होली पर

रंगों से दिल सजा लूं इस बार होली पर
रूठों को अब मना लूं इस बार होली पर |

इक स्नेह रंग घोलूँ आंसू की धार में
पानी ज़रा बचा लूं इस बार होली पर |

अपनों की बेवफाई से मन है हुआ उदास
इक मस्त फाग गा लूं इस बार होली पर |

रिश्तों में आजकल तो है आ गई खटास
मीठा तो कुछ बना लूं इस बार होली पर |

उम्मीद की कमी से फीकी हुई जो आँखें
उनमें उजास ला दूं इस बार होली पर|

भारती पंडित
इंदौर






Wednesday, March 9, 2011

web partika me prakashit rachana




लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
भारती पंडित
की लघुकथा- गुरु दक्षिणा


मुखपृष्ठ

"अरे मास्टरजी... आप? आइए.. आइए.." इतने वर्षों के बाद मास्टरजी को अचानक अपने सामने पा कर मैं चौंक ही गया था। मास्टरजी... कहने को तो गाँव के जरा से मिडिल स्कूल के हेडमास्टर.. मगर मेरे आदर्श शिक्षक, जिनकी सहायता और मार्गदर्शन की बदौलत ही उन्नति की अनगिनत सीढियां चढ़कर मैं इस पद पर पहुँचा था। बीस साल पहले की स्मृतियाँ अचानक लहराने लगी थी आँखों के सामने... तब और अब में जमीन -आसमान का फर्क था... कल का दबंग-कसरती शरीर अब जर्जर - झुर्रीदार हो चला था। आँखों पर मोटे फ्रेम की ऐनक, हाथ में लाठी जो उनके पाँवों के कंपन को रोकने में लगभग असफल थी। मैली सी धोती, उस पर लगे असंख्य पैबंद छुपाने को ओढी गई सस्ती सी शाल... मेरा मन द्रवित हो गया था। भाव अभिभूत होकर मैंने मास्टर जी के पाँव छू लिए। मास्टर जी के साथ आए दोनों व्यक्ति चकित थे.. मुझ जैसे बड़े अधिकारी को मास्टर जी के पाँव छूते देख और साथ ही एक अनोखी चमक आ गई थी उनके मुख पर कि मास्टर जी को साथ लाकर उन्होंने गलती नहीं की है। मास्टर जी के चहरे पर विवशता लहराने लगी थी, जैसे मेरा पाँव छूना उन्हें अपराध बोध से ग्रस्त किए दे रहा हो।

"कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? " क्या आदेश है मेरे लिए? " अपने चपरासी को चाय- नाश्ते का आर्डर देकर मैं उनसे मुखातिब हुआ।
"जी.., वो कल आपसे बात हुई थी ना..." मास्टर जी के साथ आए व्यक्ति ने मुझे याद दिलाया .." ये रवींद्र है, मास्टर जी का पोता .. इसी की नौकरी के सिलसिले में ...

यह व्यक्ति दो-तीन महीने से मेरे विभाग के चक्कर काट रहा था। वह चाहता था कि कैसे भी करके इसके बेटे को नियुक्ति मिल जाए। मैंने रवींद्र का रिकॉर्ड जाँचा था, अंक काफी कम थे। मैंने उन्हें समझाया थe कि मैं उसूलों का पक्का अधिकारी हूँ, योग्य व्यक्ति को ही नियुक्ति दूँगा। अब उनके साथ मास्टर जी का आना मेरी समझ में आ गया था। हालात आदमी को कितना विवश बना देते है। यही मास्टर जी जो एक ज़माने में उसूलों के पक्के थे। हमेशा कहते थे, "अपने काम को इतनी निपुणता से करो कि सामने वाले को तुम्हें गलत साबित करने का मौका ही न मिल पाए।" उन्हीं के उसूल तो मैंने अपनी जिन्दगी में उतर लिए थे और आज वे ही मास्टर जी मेरे सामने खड़े थे, एक अदनी सी नौकरी के लिए सिफारिश लेकर?

"ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा, वैसे भी मास्टर जी साथ आए है, तो और कुछ कहने की जरुरत है ही नहीं।" मेरे शब्दों में न चाहते हुए भी व्यंग्य का पुट उभर आया था जिसे मास्टर जी ने समझ लिया था और उनकी हालत और भी दयनीय हो गए थी, वे विदा होने लगे तो मैंने अपना कार्ड निकाल कर मास्टर जी के हाथ में थमा दिया..." अभी शहर में है, तो घर जरूर आइए मास्टर जी "

मास्टर जी ने काँपते हाथों से कार्ड थाम लिया था। उनके जाने के बाद मैं बड़ा अस्वस्थ महसूस करता रहा। सहज होने की कोशिश में एक पत्रिका उलटने लगा कि दरबान ने आकर बताया, "साहब, कोई आपसे मिलने आये हैं।"
"उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाओ, मैं आता हूँ " कहकर मैं हाउस कोट पहनकर बाहर आया .. एक आश्चर्य मिश्रित धचका सा लगा... "अरे मास्टर जी , आप? आइए ना.. "

"नहीं बेटा, ज्यादा वक्त नहीं लूँगा तुम्हारा," मास्टर जी की आवाज में कम्पन मौजूद था। "सुबह उन लोगों के साथ मुझे देखकर तुम्हारे दिल पर क्या गुज़री होगी, मैं समझ सकता हूँ। मेरे ही द्वारा दी गई शिक्षा को मैं ही झुठलाने लगूँ तो यह सचमुच गुनाह है बेटा,, पर क्या करता, मजबूरी बाँध लाई मेरे पैर यहाँ तक रवींद्र का बाप मेरा दूर रिश्ते का भतीजा है। मेरे बच्चों ने आलस - आवारगी में सारे जमीन- जायदाद गँवा दी। मेरे अकेले की पेंशन पर क्या घर चलता ? उस पर पत्नी की बीमारी.. ढेरों रुपये का कर्जदार हो गया मैं ... मकान भी गिरवी पड़ा है। ब्याज देने के तो पैसे नहीं, असल कहाँ से देता ? तभी रवींद्र का बाप बोला कि यदि उसका जरा सा काम कर दूँ तो मेरा मकान छुडा देगा। कम से कम रहने का ठौर हो जायेगा, यही लालच यहाँ खींच लाया बेटा। पर तुम्हें देखकर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। कुछ मसले ऐसे होते हैं जो समझौते के लायक नहीं होते। उनकी गरिमा कायम रहनी ही चाहिए। बेटा, तुम रवींद्र को मेरे कहने से नौकरी मत देना। अगर ठीक समझो, तभी उसे रखना।" कहकर मास्टर जी बाहर को चल पड़े थे.. मैं बुत बना खड़ा रह गया था


Monday, March 7, 2011

Women's Day

निज से मेरी पहचान हो
अस्तित्व का अब ज्ञान हो
किस हेतु मेरा जन्म है
किस निमित् मेरे कर्म है
मैं संगिनी, सहधर्मिणी
जननी भी मैं, अनुरागिणी
मैं दिव्य ज्योति समुज्जवला
मैं बुद्धि, शक्ति प्रवर्तिका
मैं समर्पिता और पतिव्रता
नारी हूं मैं ,मैं हूं वनिता





Tuesday, March 1, 2011

Aalekh

भूख छपास की
आइए आज भूख की बात करते है..भूख केवल पेट की ही नहीं होती.. एक भूख होती है छपास की और मंच की. इस भूख को एक बीमारी भी कह सकते है, जिसका वाइरस अधिकतर साहित्यकारों को और कलाकारों को अपनी चपेट में लेता है.. कलाकार भी वे जिनके ढोल में पोल होती है. यह वाइरस धीरे-धीरे दिमाग में घर करता जाता है और सारे व्यक्तित्व पर हावी होता जाता है. इस भूख से पीड़ित व्यक्ति की आत्माभिमान करने के शक्ति बहुत बढ़ जाती है.. उसे अपनी कला पर आत्मविश्वास नहीं, अति विश्वास हो जाता है. वह दूसरों की सुनना बिलकुल बंद कर देता है और अपनी ढपली-अपना राग आलापना शुरू कर देता है. किसी समारोह में जाने पर उसकी पहली कोशिश होती है मंच पर चढ़कर माइक हथियाने की.. यदि सरलता से मिल जाए तो ठीक, अन्यथा वह "बस जरा सा कुछ कहना है" कहकर मंच पर चढ़ जाता है. कई बार तो इस मंच के लिए आयोजकों के कोपभाजन बनने से भी नहीं डरता . यह दीवानगी तब और बढ़ जाती है, जब समारोह को कवर करने रिपोर्टर्स आते है.. फिर तो धक्का-मुक्की करके ऐसी जगह पहुचने का प्रयास होता है कि कल के अखबार में मुखड़ा उनका ही चमकना चाहिए.. चाहे समारोह में कोई भागीदारी हो या न हो.. जब बहुत प्रयासों के बाद भी फोटो में जगह नहीं मिल पाती, तो सेटिंग करने से बाज नहीं आते.. और भगवान की दया से यदि किसी समारोह में कोई कविता सुनाने(मुख्य अतिथि के आने में देर होने पर) या गीत गाने का मौका मिल जाए, तो जोड़-तोड़ करके ,अपने प्रभाव या पद का उपयोग करके ऐसी जुगाड़ फिट करते है कि समारोह चाहे कोई भी हो, मुख्य धारा के समाचार में अपना नाम और फोटो डलवाकर ही दम लेते है.. आयोजक बेचारा अगले दिन का अख़बार देखकर बाल नोचकर रह जाता है .. उसके आयोजन के समाचार का बदला रूप देखकर सिवाय मन ही मन गाली देने के कर भी क्या सकता है .. मगर अगली बार उसे अपने आयोजन में कदम भी न रखने देने की कसम खा लेता है..
ये तो हुए लक्षण .. अब सवाल यह कि इस बीमारी का इलाज क्या हो..कई विशेषज्ञों से चर्चा करने के बाद पता लगा कि इस बीमारी का सिर्फ एक इलाज है और वो है अपने विषय में पारंगत होना.. जब मन में ज्ञान गंगा बहने लगेगी, तो व्यक्ति पठन-मनन में रूचि लेने लगेगा , जिससे संभवतः उसके मन की मलिनता दूर हो जाए और वह आत्म मंथन करने में सक्षम हो जाए. अपने आप को उस स्तर तक उठाने का प्रयास करने लगे, जब छपने के लिए उसे जोड़-तोड़ न करने पड़े, वरन लोग स्वयं उसके पीछे आने लगे..
खुद को कर इतना बुलंद कि आसमां लगे कमतर
उधारी से न भर दामन, बना खुद ही को बेहतर..
भारती पंडित
इंदौर

Friday, February 18, 2011

लघु कथा

लघु कथा :
वेलेंटाइन डे

चारों ओर वेलेंटाइन डे की धूम मची हुई थी. दुकाने, मॉल दुल्हन की तरह सजे थे. परफ्यूम में सने, कौलेज गोइंग युवा नए-नए परिधानों में सजे
हाथों में हाथ डाले यहां-वहां घूम रहे थे.
मॉल के सामने का एक पार्क भी उतना ही आबाद था. बैंचों पर , झाडियों के पीछे हर तरफ युवा जोड़े कबूतरों के जोड़े से गुटर-गूं कर रहे थे. ऐसा ही एक जोड़ा बैंच पर बैठा था. लड़की के हाथों में डोमिनोज का बड़ा सा बर्गर था, लड़के के हाथ में कोर्नेटो का आइसक्रीम कोन.. जिसे वे आपस में मिल बांटकर खा रहे थे.
अचानक दो फटेहाल बच्चे उनके सामने आ खड़े हुए.." दीदी , बापू मर गया है, माँ दो दिन से बीमार है.. हमने दो दिन से कुछ नहीं खाया है.. कुछ खाने
को दे दो ना.." बच्चा बेबसी से बोला.. बच्ची ललचाई नजरों से आइसक्रीम की ओर देख रही थी.
" चल हट.. चले आते है जाने कहां -कहां से .." जोड़े का सारा वेलेंटाइन मूड हवा हो गया था. हिकारत भरी नजरों से बच्चों को देखकर उठने ही वाले थे कि सामने मौल में हलचल मच गई.. " शाहरुख खान आ गए... जोर से हल्ला हुआ.. शायद नए बने मल्टीप्लेक्स का उदघाटन करने शाहरुख़ खान पधारे थे..लड़का-लड़की ने झटपट अपने हाथ का बर्गर और आइसक्रीम बैंच पर पटक दी और मौल की ओर भाग चले.
दोनों बच्चों ने लपककर बर्गर और आइसक्रीम कोन उठा लिया.. मुंह से लगाने ही वाले थे कि एक और नंग-धडंग बच्चा वहां आ पहुंचा..,
"मुझे भी भूख लगी है.. मैं भी खाउंगा "
बच्चे ने कुछ सोचा और झटपट बर्गर और कोन के तीन हिस्से कर दिए.. खाते-खाते तीनों के चहरे ख़ुशी से दमक रहे थे.
वेलेंटाइन डे का असली अर्थ वे बच्चे ही समझ पाए थे शायद...
भारती पंडित
इंदौर

Wednesday, February 9, 2011

kavita

सपने
उस दिन जब मैं पहली बार गया पाठशाला
और उस दिन जब मैंने सीखा ककहरा
ढेरों अधूरे सपने
धम से आ गिरे थे मेरी झोली में ..
दादा के सपने, दादी के सपने
माँ के सपने , पिताजी के सपने
वे सब मानो जोह रहे थे
मेरे बड़े होने की बाट,
कि उनके भी सपनों को
मिल जाये मंजिल...
आज उनके सपनों को जीता मैं
सोचता हूँ कि देख लूं
अपने भी कुछ सपने ,
और उन्हें पूरा भी
मैं ही कर डालूँ ..
डरता हूँ कि मेरे सपने कहीं
मेरे नन्हें की आँखों में घर न बना ले ...

भारती पंडित
इंदौर

Thursday, January 13, 2011

kavita

[1] औरत हूँ मैं.
अल-सुबह जब सूरज खोलता भी नहीं है
झरोखे आसमान के
चिडिया करवटें बदलती हैं
अपने घरोंदों में
उसके पहले उठ जाती हूँ मैं
घर को सजाती संवारती
सुबह के काम समेटती
चाय के कप हाथ में लिए
सबको जगाती हूँ मैं
जानती हूँ, औरत हूँ मैं ........
बच्चों की तैयारी,
पतिदेव की फरमाइशें
रसोई की आपा धापी
सासू माँ की हिदायतें
इन सब के बीच खुद को
समेटती सहेजती हूँ मैं.
कोशिश करती हूँ कि माथे पर
कोई शिकन न आने पाए
जानती हूँ औरत हूँ मैं.....
घर, दफ्तर,, मायका ससुराल
गली, कूचा ,मोहल्ला पड़ोस
सबके बीच संतुलन बनाती मैं
चोटों को दुलार, बड़ों को सम्मान
अपनापन सभी में बाँटती मैं
चाहे प्यार के चंद मीठे बोल
न आ पाए मेरी झोली में
जानती हूँ औरत हूँ मैं .......
कोई ज़ुबां से कहे न कहे
मेरी तारीफ़ के दो शब्द
भले ही ना करे कोई
मेरे परिश्रम की कद्र
अपने घर में अपनी अहमियत
जानती हूँ ,पहचानती हूँ मैं
घर जहां बस मैं हूँ
हर तस्वीर में दीवारों में
बच्चो की संस्कृति संस्कारों में
रसोई में, पूजाघर में
घर की समृद्धी, सौंदर्य में
पति के ह्रदय की गहराई में
खुशियों की मंद पुरवाई में
जानती हूँ बस मैं ही मैं हूँ
इसीलिए खुश होती हूँ
कि मैं एक औरत हूँ.

bharti pandit