Saturday, December 23, 2017

एक संदेशपरक फिल्म सांकल 
यह फिल्म उस फिल्मकार की फिल्म है जो मुख्यधारा के अकूत धनी फिल्मकार नहीं है मगर समाज के अभिशप्त मुद्दों पर जागरूकता का आह्वान करने को प्रतिबद्ध है| यह फिल्म बड़ी कठिनाइयों से जूझते हुए अपने मुकाम तक पहुँची है और उसके बाद भी व्यावसायिक फिल्मों के चक्रव्यूह के चलते इसे वितरक और सिनेमा हॉल दोनों ही मिलने में खासी दिक्कतों का सामना करना पडा है| बावजूद इसके यदि इसकी स्क्रीनिंग हो पाई है तो इसके लिए निर्माता-निर्देशक की जीजिविषा को सलाम|
यह कहानी है एक ऐसे गाँव की जहाँ पुरानी सड़ांध मारती परंपराएँ स्वतंत्रता के पचास दशक बाद भी उसी तरह से मौजूद हैं| इस गाँव के वाशिंदों के लिए औरत केवल देह मात्र है, उपभोग की वस्तु मात्र है जिसे वे अपनी सुविधानुसार अदल-बदल सकते हैं, इस घर से उस घर बिठा सकते हैं| स्त्री के हिस्से शिक्षा नहीं, सहारा नहीं और उससे भी बड़ी बात यह कि समाज में अपनी स्थिति को स्त्रियाँ स्वयं किस तरह से आत्मसात कर लेती हैं और “यही हमारी नियति है” मानकर हर दिन का नरक भोगती रहती है, इस कटु सत्य को बेहतरी से उजागर करती है यह फिल्म|
कहानी है जैसलमेर के पास के एक गाँव की जहाँ एक बिरादरी की उम्रदराज़ होती लड़कियों की शादी अपनी ही बिरादरी के कम उम्र लड़कों से कर दी जाती है| प्रकट में तो इस प्रथा का उजला पक्ष यह दिखाया जाता है कि ऐसा करने से बिरादरी की लडकियाँ अनब्याही न रहेंगी मगर काला सच यह है कि नई बहू के आने पर अपनी स्वर्ग सिधार चुकी या उम्रदराज़ हो चुकी पत्नियों से विकल घर के मर्दों के लिए मानो रेगिस्तान में बसंत आ जाता है और हरेक उसे अपनी बपौती मानकर अपनी क्षुधा शांत करता रहता है| ऐसी ही प्रथा की शिकार है युवा अबीरा और उसका नन्हा पति केसर...दोनों ही बेमेल शादी के जाल में उलझा दिए जाते हैं, बेचारे केसर को बचपन में ही एक बेटी का बाप बना दिया जाता है, उस समय जब वह इतना अबोध होता है कि उसे यौन रिश्तों का अ,ब,स तक पता नहीं होता|
किशोरावस्था में आने के बाद केसर को असलियत पता चलती है| इस बीच उसके मन में अपनी पत्नी के प्रति प्रेम जन्मता है, वह सशरीर उससे एकाकार भी होता है| पर फिर उनकी ज़िन्दगी में एक तूफ़ान आता है जो उनके जीवन को तहस-नहस कर देता है|
फिल्म के तकनीकी पक्ष की बात करें तो यह फिल्म पूरी तरह से चेतन शर्मा और तनिमा भट्टाचार्य की फिल्म है| चेतन (केसर) के शरीर का हर फ्रेम अभिनय करता है, अपने आप को व्यक्त करता है| इस युवा में भारी संभावनाएँ नज़र आती हैं| बढ़े हुए बालों में वह बेहद आकर्षक लगा है| तनिमा हर फ्रेम में बहुत खूबसूरत लगी है| उसके हिस्से संवाद कम ही थे और उन्हीं मूक फ्रेम्स में वह बेहद निखरकर आई है| आँखों, भौहों और लरजते ओंठों से दृश्य के भाव को अंज़ाम देना अद्भुत है| हाँ, संवाद अदायगी उतनी प्रभावी नहीं हो पाई है| बाकी पात्र ठीकठाक है| मिलिंद गुणाजी हर शॉट में केसर के सामने फीके लगे|
दृश्यांकन भी बहुत सधा हुआ और कलात्मक है| रेत के टीलों की सुन्दरता को बखूबी कैमरे में कैद किया गया है| तनिमा और केसर के क्लोजअप शॉट्स भी बहुत बेहतर बन पड़े हैं|
गीत दिल दरिया बेहद मधुर बन पड़ा है जो लगातार जुबां पर चढ़ा रहता है| रिश्तों की सांकल गीत भी अच्छा बन पड़ा है| गीतों का फिल्मांकन प्रभावी है| हाँ, दृश्यों में पार्श्व संगीत कहीं कहीं बेमेल लगा है|
संवाद फिल्म का थोड़ा कमज़ोर पक्ष है| इस तरह की कहानी में अत्यंत प्रभावशाली संवादों की अपेक्षा थी मगर बेहद साधारण तरीके से इन्हें निभा दिया गया है| अंतिम संवाद – खुदा ने औरतों को मर्दों के हाथों का खिलौना बनाकर भेजा है...इतनी बार सुना जा चुका है कि सीन का प्रभाव जाता रहा|
इसी तरह थोड़ा काम फिल्म की गति पर किया जाना था| जिन दृश्यों पर थोड़ा ठहरकर सघन भाव दिखाने की आवश्यकता थी वे अचानक जल्दी से गुज़र जाते हैं| केसर और अबीरा के बीच पनपते प्रेम को दिखाने के लिए कुछ और दृश्यों की आवश्यकता थी चूंकि प्रेम शरीर नहीं आत्मा भी होता है...मगर इन्हें केवल शारीरिक संसर्ग का दृश्य दिखाकर छोड़ दिया गया है| दुखभरे दृश्य भी इतनी तेज़ी से गुज़रते हैं कि आँसू आँखों को केवल महसूस होते हैं, बाहर नहीं आते|
स्क्रीन प्ले एक-दो जगह उलझाता है मसलन हत्या करने के बाद भाग जाने पर भी पुलिस केसर की तलाश कैसे नहीं करती? साथ ही केसर दस-बारह साल की आयु में स्कूल छोड़ता है यानी उसे पढ़ना आना चाहिए, मगर पहले दृश्य में वह यह कहता नज़र आता है कि मैं तो इस पुस्तक को पढ़ नहीं सकता...(संभव है निर्देशक इसके द्वारा शिक्षा क्षेत्र की विसंगतियों की ओर भी इशारा करना चाहते हो)
शायद यह फिल्म किसी सत्य घटना पर आधारित है पर बार-बार अबीरा का परिस्थिति के सामने विवश होकर घुटने टेकना विचलित करता है...काश कि वह विद्रोह कर पाती...
बहरहाल स्वतंत्र सिनेमा के क्षेत्र में सांकल को एक अच्छा प्रयास कहा जाएगा जिसने इतने गंभीर मुद्दे की ओर ध्यान दिलाने की एक बेहतर पहल की है| इसे सभी को एक बार ज़रूर देखना चाहिए ताकि इस पहल की गूँज दूर तक जा सके|
निर्माता-निर्देशक देदीप्य जोशी को बधाई|

Sunday, November 19, 2017

   
तुम्हारी सुलू – दूसरा दिन, दूसरा शो
फिल्म के प्रोमो देख-देखकर ही उत्सुकता जाग उठी थी इस फिल्म को देखने की...आखिरकार दूसरे दिन एंट्री ले ही ली थिएटर में...ट्रेलर और अखबार की समीक्षा से कहानी का अंदाज़ तो लग ही गया होगा, पर कुछ महत्वपूर्ण बातें जरूर बताना चाहूँगी इस फिल्म के बारे में|
सबसे पहले तो यह फिल्म शिक्षा व्यवस्था की उस पारंपरिक और आउटडेटेड होने के बावजूद आज भी व्याप्त सोच पर करारा व्यंग्य करती है जहाँ भले ही कितने ही हुनर हो व्यक्ति में, यदि तीन घंटे के पेपर में सफलता नहीं हासिल की यानी बारहवी का प्रमाणपत्र हासिल नहीं किया, तो जीवन बेकार है| तो इस फिल्म की नायिका सुलू उर्फ़ सुलोचना ऐसी ही एक बारहवी फेल छात्रा हैं, जो खासी हुनरमंद और नए-नए कामों की आज़माइश के लिए उत्साहित हैं मगर बारहवी फेल का तमगा उसका साथ नहीं छोड़ता और हर घर की ही तरह यहाँ भी उसकी लड़ाई उसके अपनों से यानी पिता, बहनों और जीजाओं से ही है| और हमारी नायिका इस सत्य के प्रति स्वीकार भाव रखते हुए रेडियो जॉकी की नौकरी का प्रस्ताव मिलने पर पूछती है, बारहवी फेल हूँ मैं, चलेगा न?  
   दूसरी महत्वपूर्ण बात जिसकी ओर यह फिल्म इशारा करती है, वह है हमारे यहाँ व्यवसाय में पदानुक्रम का लागू होना यानी कुछ पेशे गर्व के भाव से देखे जाते हैं और कुछ को हेय माना जाता है| रेडियो पर रात का शो एंकर करने का प्रस्ताव है सुलू के पास, और काम भी यह कि दिन भर के थके-हारे कामगार लोग उससे कुछ मज़े की बातें कर सके| सुनने में यह अटपटा लगता है मगर गहराई से सोचे तो हमारे यहाँ भावनात्मक स्वास्थ्य की स्थिति इतनी खराब है कि लगातार परेशानियों से जूझते परिवारों के लिए घर तो शायद ही सुकून का स्थल होते हो| संवाद तो लगभग खत्म से हैं| कोई हमारी बात सुन भर ले, इसका तक अकाल पड़ा रहता है| यहाँ एक और बात सुलू स्थापित करती है कि गन्दगी लोगों के मन में होती है, काम की अवधारणा में नहीं और इसी सोच के साथ सुलू इस शो को जन-सामान्य का शो बना डालती है मगर उसकी बहनें रात के शो को गंदा काम कहकर उसका मनोबल नीचे गिराने का पूरा प्रयास करती हैं| वे उच्च शिक्षित हैं अतः उनकी नौकरी, उनका टूर पर जाना सम्माननीय है मगर सुलू का रात के शो के लिए घर से बाहर जाना हेय काम है|
   तो कहानी हमारे-आपके जैसे मध्यम वर्ग के घर की ही है, फिल्म के बहुत से फ्रेम में बार-बार हम अपने आप को जीते हुए देखते हैं| पति-पत्नी के बीच की नोंक-झोंक हो, प्यार के लम्हे हो या बहस...सब कुछ बेहद जीवंत बन पड़ा है| स्वस्थ हास्य कैसे चुटीले संवादों द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है, इसका हर सीन में अहसास होता है| जेंडर के मुद्दे जैसे पत्नी के नौकरीशुदा होने के बाद भी घर की देखभाल न कर पाने को लेकर बेवजह अपराधी महसूस करना, पति का गुस्सा झेलना आदि भी बार-बार उद्वेलित करते हैं, वहीं पति-पत्नी के बीच की केमिस्ट्री मन को छूती है| विद्या का अभिनय तो दिनोंदिन निखरता जा ही रहा है, मानव कौल भी एकदम परफेक्ट है अपनी भूमिका में| नेहा धूपिया ने भी प्रभावित किया|
हाँ, अंत थोड़ा उलझाता है...नौकरी छोड़ कर बैठे पति को काम दिलवाना भी पत्नी की ज़िम्मेदारी क्यों है? और इस्तीफ़ा देने आई सुलू बिजनेस का नया आइडिया मिलने के बाद भी फिर आरजे कैसे बन जाती है... उस शॉट पर तो दिल धड़क रहा था कि यदि इसने घबराकर नौकरी छोड़ दी तो??? सबसे पहले इसके निर्देशक को ट्वीट करके पूछूंगी कि भाई क्या सोचकर ऐसा करवाया सुलू से? पर इसकी नौबत नहीं आई...

तो एक बार जरूर देखें तुम्हारी सुलू और सपरिवार देखें...सुरेश त्रिवेणी ने इसके हर फ्रेम को खूबसूरती से उकेरा है जिसे जरूर देखना चाहिए...     

Thursday, March 24, 2016

तुम केवल



तुम केवल
तुम केवल अक्षरों की पहचान को ही
पढ़ने का नाम देते हो
मगर मैं इसके परे भी
पढ़ पाता हूँ बहुत कुछ
पिताजी के गुस्साने पर
माँ की आँखों का दर्द
भाई के बहानों में छिपा झूठ
या पड़ोसी के बेटे की कुटिलता
और रिश्तों में पसरी तटस्थता,
हाँ, यह भी पढ़ पाता हूँ मैं
कि मुझे मूल्यों का पाठ पढ़ानेवाले
खुद कितने मूल्य सहेजते हैं|
मगर तुम्हारे लिए इतना पर्याप्त नहीं
पढ़ने के कौशल के लिए,
तुम तो आज भी बस
अक्षरों की ही पहचान को
पढ़ने का नाम देते हो|
                                                             - भारती पंडित

Tuesday, July 30, 2013



 पदचिह्न 

उम्र छोड़ती जाती है  पदचिह्न
चेहरे पर हमारे कदम  दर कदम 
झुर्रियाँ , झाइयाँ ,धब्बे बनकर 
शायद  ही छुपा पाते हैं  प्रसाधन  उन्हें 

उम्र छोड़ती जाती है पदचिह्न 
शरीर पर हमारे कदम दर कदम 
मोटापा , रक्तचाप,संधिवात बनकर 
शायद ही मिटा पाती है दवाएँ जिन्हें 

कुछ पदचिहन छोड़ती है उम्र 
समझ पर भी कदम दर कदम 
बड़प्पन और सुन्दर विचार बनकर 
नहीं पड़ती जरुरत  छिपाने की जिन्हें 
क्योंकि 
जीवन सार्थक कहलाता है इनके होने पर ही 

भारती पंडित 

Wednesday, July 17, 2013




   अगला जन्म 
सड़क के किनारे बनी मजदूर बस्ती में वह अपने टूटे-फूटे झोंपड़े में बच्चों को बहला रही थी| भोजन के नाम पर बर्तन में चावल के चंद दाने थे | सोचती  थी बातों के बहलाव-फुसलाव के साथ परोसे गए चावल उनका पेट भरने में कामयाब हो जाएंगे | इतने में बड़ा बेटा बोला ," माँ , क्या अगला जन्म भी होता है?" 
वह बोली ,"हाँ बेटा , सुना तो है , क्यों ?
बेटा बोला ," फिर तो मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा की अगले जन्म में मुझे इंसान नहीं, सामने वाले बंगले का कुत्ता बनाना | पता है माँ , वह कुत्ता रोज़ दूध-बिस्कुट, अंडे-ब्रेड-मांस  खाता है | रोज़ महंगे शैम्पू से नहाता है और कार में भी घूमता है | और तो और बीमार पड़ जाने पर डॉक्टर उसे खुद देखने आते हैं | कुत्ता होकर कैसी ठाठ की जिन्दगी  है न उसकी ?"
उसकी आँखे फटी की फटी रहा गई थी | कानों में बच्चे के शब्द  भांय-भांय कर रहे थे| उसे लगा मानो सामने बैठा बच्चा अचानक कुत्ते की शक्ल का हो गया और भौं-भौं करता हुआ सामने वाले बंगले में घुस गया |


Wednesday, May 15, 2013

पिंजरे पैमानों के


अपने लिए आज़ादी की मांग करता मैं
जाने-अनजाने गढता जाता हूं
दूसरों के लिए पिंजरे पैमानों के
उठने-बैठने हंसने-रोने के
चरित्र व्यवहार बोलचाल के पैमाने
और सतत अभिलाषी रहता हूं कि
मेरे अपने सहज सहर्ष 
कैद होते जाए मेरे पैमानों में
मेरे जैसे मेरे मुताबिक
उनकों अपने सांचों में ढालता मैं
अक्सर भुला देता हूं
कि आज़ादी की एक मांग उनकी भी थी ..

भारती पंडित

Sunday, February 3, 2013

जीवन की पाठशाला में
भले ही न सीख सका मैं हिज्जे वर्णमाला के
अपनों से संवाद भली भाँति निभा रहा हूँ मैं ।
न पढ़ पाया चंद पन्ने किताबों के
किसी के दर्द को आँखों में पढ़ पाता हूँ मैं ।
अंकों की समझ शून्य थी मेरी
पर रिश्तों का गणित निभा जाता हूँ मैं ।
चाहे कर ना पाया होमवर्क कभी
माँ का हाथ हर काम में बंटाता हूँ मैं ।
प्रगति पत्रक में रहा अनुत्तीर्ण छात्र मैं
जीवन की पाठशाला में होनहार कहा जाता हूँ मैं ।
भारती पंडित