Tuesday, April 24, 2012

साहित्यिक सम्मान बनाम....???


  कल एक साहित्यिक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. आजकल अक्सर ऐसा होता है कि बड़ी उमंग से कार्यक्रम में जाती हूँ.. और फिर वहाँ की अव्यवस्था या अस्तरीयता के चलते मन खट्टा हो जाता है .. ऐसा ही कुछ कल भी हुआ.. मंच संचालक की स्क्रिप्ट गड़बड़ा रही थी.. चलो माफ़ किया ..मंच पर अव्यवस्था थी.. वह भी माफ़ किया जा सकता था मगर जो सबसे असहनीय था वो यह कि साहित्यिक सम्मान के लिए जिन  २१ साहित्यकारों को चुना गया था, उनकी पुस्तकें बाहर प्रदर्शित की गई थी..अत्यंत दुःख की बात यह कि तीन-चार  नामचीन लेखकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी का लेखन एकदम बकवास {क्षमा चाहती हूँ } था और उन्हें ऐसी कृतियों के लिए सम्मानित करना यानि साहित्य का अपमान ही है...
मेरा सर्वाधिक रोष तो उन प्रकाशकों पर है जिन्होंने पुस्तक प्रकाशन के द्वार अच्छे  साहित्यकार के लिए एकदम बंद  कर दिए हैं ,यदि कोई बिना रूपया खर्च किए अच्छा साहित्य भी प्रकाशित करवाना चाहे तो उसे नानी याद आ जाती है.. दूसरी ओर २०-२५ हज़ार की राशि नकद देकर कुछ प्रकाशक बकवास साहित्य भी खुशी से छाप रहे है क्योंकि साहित्य के स्तर को बनाए रखने का ठेका उन्हें नही सौपा गया है...इसी के चलते बेकार साहित्य पुस्तकाकार रूप में आ जाता है और शहर  की आम-ख़ास संस्थाओं के सम्मान समारोह में इन सो कॉल्ड साहित्यकारों को सम्मान बाँट दिए जाते है..
      मेरा दूसरा प्रश्न है उन संस्थाओं  से जो इस तरह के सम्मान समारोह आयोजित करती हैं.. क्या ये समारोह केवल खाना पूर्ति के लिए ही आयोजित किए जाते है या वास्तव में अच्छे साहित्य से इनका कोई लेना-देना भी होता है? या आबंटित बजट को खर्च करने का रास्ता बनाया जाता है इनके ज़रिए? क्या पुस्तकों की जाँच के लिए समिति बनानी जरुरी नही है? सम्मान लायक पुस्तक न मिलने पर  संस्था के द्वारा यह विज्ञप्ति क्यों नहीं जारी की जाती कि " इस वर्ष कोई भी पुस्तक सम्मान लायक नही पाई गई? " क्या साहित्य के स्तर की रक्षा हेतु यहकदम उठाना जरुरी नहीं समझा जाता? 
 आजकल किताबें नही  पढी जाती यह गुहार लगाने वाले इन साहित्यकारों और इन संस्थाओं को यह समझना चाहिए कि बेकार साहित्य की बहुलता में अच्छा साहित्य कहीं गुम हो रहा है और जब पाठक के पल्ले ऐसी पुस्तकें पड़ती हैं तो वह पुस्तकों से दूर भानागे का ही प्रयास करता  है.. 
स्वांत सुखाय लिखने  और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अधिकार सबको है मगर कुंदन बने बिना साहित्य के आभूषण में जड़कर उसे बदसूरत बनाने का अधिकार  किसी को नहीं मिलना चाहिए..

Monday, April 16, 2012

सपनों की सुबह

हर सुबह
जब दफ्तर जाती हुई भीड़ का एक हिस्सा बनकर
दो-चार होती हूँ सड़क के ट्रेफिक से
तब अंतर्मन में दबी एक सुप्त सी आशा
हौले से सिर उठने लगती है ..
जब कभी देखती हूँ किसी को
सुबह-सुबह जोगिंग करते
या बालकनी में बैठ चाय सुड़कते ,
अखबार पलटते ..तो
ईर्ष्या की नन्ही सी चिंगारी सुलग जाती है मन में
और फिर दबी सी वह आशा
फिर सिर उठाने लगती है ..
क्या कभी ऐसा होगा जब
मेरा समय होगा सिर्फ मेरा अपना
और होगा सब कुछ वैसा जैसे मैं चाहूँ..
जब मैं सोना चाहूँ, न हो अलार्म की टन-टन
जब मैं कुछ पढ़ना चाहूँ , न हो बर्तनों की खडखडाहट
ना हो सुबह की आपाधापी
ना हो शाम की खींचा तानी
बस घर हो सपनों के घर जैसा और
मैं बन जाऊं उस घर की रानी
बस के धचके के साथ ही जाग जाती हूँ
अपने टूटे सपने के किरचें समेटे
टूटी आशा को फीकी हँसी में समेटते
जानती हूँ मेरी ये सोच बेमानी है,
हर मिडिल क्लास नारी की
बस यही कहानी है ..
जहाँ सपने सिर्फ सपने होते हैं
और यथार्थ हर सपने पर भारी है ..
उस पर नारी की दोहरी जिम्मेवारी है
सब कुछ निभाकर भी बेचारी है ...
रोज सुबह इसी सपने के साथ
शुरू करती हूँ दिन अपना
और फिर दिखा देती हूँ माचिस उसे ..
और.. हर नई सुबह फिर थाम लेती हूँ
उम्मीद भरे सपने का दामन
की वो सुबह कभी तो आएगी ..

भारती पंडित