Thursday, January 17, 2013




ये शहर 

पौ फटते ही शुरू हो जाती है 
चहलकदमी शहर की 
आँख खुलते ही नज़र आती है 
गहमागहमी शहर की |
भागती बसें, दौड़ते रिक्शे ,
घिसटते कदम, लरजती साइकिलें
आदमी,औरत,मजदूर,बच्चे 
अपनी राहों पर चल पड़ते सच्चे ,
दिन ढले लौटते पंख पसारे 
बेनूर,निस्तेज,थके -हारे
रात गहराती है,सिमटती है ज़िन्दगी
 सुबह की उम्मीद में ढलती है ज़िन्दगी |
इनकी शाम के साथ  रौशन होती है एक सुबह
बारिश में बढ़ते कुकुरमुत्तों की तरह
बिखरती मस्तियां, छलकते है जाम 
उमड़ते हैं सपने , ढलती है शाम 
क्लब पार्टियों की रंगीन रातें 
वो बिजनेस की डीलिंग, सौदे की बातें |
कुछ ऐसे ही रंगों से ढलती है रात 
फिर उनकी सुबह को देती शुरुआत 
चुपके से कह जाती है बात इतनी 
कि उनकी सुबह से है रात इनकी |