Saturday, August 28, 2010

kavita

चाह एक शिक्षक की
जानती हूँ मैं कि दहलीज पर खड़ी हो तुम,
दस्तक देने को तैयार शायद करती हो इंतज़ार
कि द्वार खुलेगा और थाम लोगी हाथ मेरा
और ले जाओगी महाप्रयाण के उस अनंत पथ पर
जहां से वापसी संभव नहीं,आसान नहीं
पर हे मृत्यु की देवी, तुम्हीं से मांगती हूँ
जीवन के कुछ क्षणों का अमूल्य वरदान
यद्यपि नहीं है अधूरा कोई सपना
नहीं है अधूरी कोई भी चाह
ना ही है आस बिटिया के विवाह की ,
ना ही दिखाना है बेटे को सुनहली राह
बस इतना ही है काम बाकी कि
ज्ञान के जो अनमोल मोती सहेजे है
इस जीवन प्रवास में
डालती जाऊं किसी सुपात्र की झोली में
जो उन मोतियों को पल्लवित करें
बीजों की तरह और
लहलहा दे उन्हें उस वृक्ष की तरह
शिक्षा, सभ्यता और अनुशासन हो जिसके फल
संस्कार, देशप्रेम और जीवन मूल्यों से
जो हो सुगठित,सबल
बस इतना सी है स्वार्थ मेरा
क्योंकि फल खाने वालों के संतोष में
होगा एक हिस्सा मेरा भी
गुमनाम ही सही, कहीं तो स्मृति होगी मेरी
नींव सी ही सही , हस्ती तो होगी मेरी.
भारती पंडित