Wednesday, May 15, 2013

पिंजरे पैमानों के


अपने लिए आज़ादी की मांग करता मैं
जाने-अनजाने गढता जाता हूं
दूसरों के लिए पिंजरे पैमानों के
उठने-बैठने हंसने-रोने के
चरित्र व्यवहार बोलचाल के पैमाने
और सतत अभिलाषी रहता हूं कि
मेरे अपने सहज सहर्ष 
कैद होते जाए मेरे पैमानों में
मेरे जैसे मेरे मुताबिक
उनकों अपने सांचों में ढालता मैं
अक्सर भुला देता हूं
कि आज़ादी की एक मांग उनकी भी थी ..

भारती पंडित

1 comment:

  1. सही कहा, दूसरों के लिये भी अपने जैसा ही सोचना चाहिये, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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