Sunday, June 27, 2010

बिटिया हमारी
यूं मजबूरियों का बने ना तमाशा ,दो सिक्कों की खातिर कोई घर न तोड़ो
न तुम जान से खेलो ,ये रिश्तें न छीनो
ये कहता है इंसानियत का तकाजा , किसी जिन्दगी का उजाला न छीनों

जो जन्मे हैं बेटा तो गूंजे है सरगम
वही घर में बिटिया के आने पे मातम
क्यों माता ही हाथों में धरती है खंजर
ये बिटिया ही तो घर को घर है बनाती
उसी से सुखों का निवाला न छीनों (१)

सुबह तो हुई पर ये कैसा नजारा
कहीं रोती बहुएँ, कहीं मरती बाला
क्यूं बनती हैं नारी सितम का निवाला
है जीने का हक़ तो उन्हें भी है आखिर
किसी से किसी का सहारा ना छीनों (२)
भारती पंडित

Monday, June 14, 2010

इमारते

कल तक जहां दिखाते थे हरे लहलहाते खेत
अब नजर आने लगे हैं मशीनी दानव वहां
धरती के सीने पर चलेंगे पहेये बुलडोजर के
एक ही दिन में धरती बंजर वीरान हो जाएगी .
फिर शुरू होगा खेल खरीदो-फरोख्त का
और माँ सी उपजाऊ धरती बोली की भेंट चढ़ जाएगी ,
धन्ना सेठ ले आएगा आदमियों की फौज भारी
उपजाऊ खेतों को मिटा लम्बी इमारतें तानी जाएँगी .
घर -बाज़ार-स्कूल अस्पताल, लोगों की हलचल होगी
मगर इन सब में गुम हो जाएगी कराह धरती की.
क्या फिर पके दानों की महक हवा को महका पाएगी?
क्या फिर बैलों की घंटियाँ कानों में गूँज पाएंगी ?
शोरगुल में डूबे मन में क्या कभी ये सोच आएगी?
शाश्वत प्रकृति को तो नष्ट किया हमने ,अब
ये नश्वर इमारतें कितना साथ निभाएंगी?

भारती पंडित
इंदौर

Tuesday, June 8, 2010

याद आती है पिताजी की सूनी आँखें

( पितृ दिवस पर विशेष)

भारती पंडित


आजकल अक्सर याद आती है
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थी देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।

आजकल अक्सर याद आता है,
पिताजी का तमतमाया चेहरा,
जो बिफर-बिफर पड़ता था,
मेरे देर से घर लौटने पर।

अब भली लगती हैं,
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुन-सुन कभी,
उबल-उबल जाता था मैं।

आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी,
जो कभी हुआ करती थी,
उलझन का सामान मेरी।

अक्सर हैरान होता हूँ इस बदलाव पर
जब उनके रूप में खुद को पाता हूँ।
क्योंकि अब मेरा अपना बेटा
पूरे अट्ठारह का हो गया है।