Friday, October 7, 2011

तब होगी शक्ति पूजन की सार्थकता

कल की कन्या पूजा के लिए सजी-धजी कन्याएं आज फिर साज-सिंगार तज माँ के साथ रसोई में हाथ बँटा रही हैं.. मन में यादें ताज़ा हैं कल के एक दिन के राज-पाट की.. यदि कन्या पूजा की यह परंपरा न होती तो शायद कितनी ही कन्याओं को " ख़ास होने के अहसास " का पता ही न चल पाता. दूर क्यों जाऊं, अपने आस-पास ही देख रही हूँ.. सामने बनते घर के पास की झोपडी में चूल्हे के सामने बैठ ७-८ साल की वह लड़की रोटी बना रही है, उसकी माँ बजरी ढो रही है .. बाल श्रमिक वहाँ प्रतिबंधित हो सकते हैं.. मगर यह बेगार ? क्या इस पर किसी का ध्यान जाता है? उसकी दूसरी बहन अपने छोटे भई को सम्हाल-दुलार रही है. भाई रोया तो उसकी खैर नहीं, वह अच्छी तरह जानती है .स्कूल का सपना इनकी माँ ने जान कर इन्हें दिखाया ही नहीं है.. कही स्कूल जाकर कुछ अजूबे सपने घर न बना ले उनकी आँखों में ...
पड़ोसन की बहू पेट से है. जब भी बात होती है, वे कहती है.. बहू के लक्षण तो लडके से ही दिखे हैं.. वैसे हमें तो लड़का क्या और लडकी क्या.. लडकी क्या.. शब्द में छुपा भय स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है .. आज भी पहली लड़की हो तो दूसरे लडके की चाह होती है ताकि फैमिली कम्प्लीट हो जाए.. क्या एक लड़की से परिवार पूर्ण नहीं होता?
आजकल जोर-शोर से बेटी बचाओ का नारा दिया जा रहा है.. बड़े-बड़े आयोजन कर कन्या पूजन किया जा रहा है.. उन्ही प्रदेशों में कन्या भ्रूण हत्या का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है ...और केवल भ्रूण ह्त्या ही क्यों कहे.. यदि बेटी पैदा तो होने देते हैं .. मगर उसे उसके अधिकारों से वन्चित रख जाता है..तो क्या यह हत्या समान नहीं? कुपोषित, अशिक्षित, अजागरूक बेटियाँ जिन्हें कदम कदम पर अपमानित, उपेक्षित और कई बार तो उपभोगित होना पडेगा.. क्या शक्ति का प्रतीक मानी जा सकती हैं? क्या एक दिन का कन्या पूजन किसी उद्येश्य को सार्थक कर सकता है?
शक्ति पूजा तभी सार्थक होगी जब लड़की से जुडी सभी कुप्रथाओं का अंत होगा, दहेज़ से लेकर बेटी के विदाई तक की सभी रस्मों के पीछे छिपे भय और लालच को समूल नष्ट किया जाएगा और माँ, दादी, चाची, बुआ, नानी तैयार होगी अपने घर में लक्ष्मी के स्वागत के लिए..

भारती पंडित
३१,स्वर्ण प्लाज़ा
स्कीम ११४-१
ए.बी.रोड
इंदौर

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