Friday, October 14, 2011

समझे अपनी जिम्मेदारी


फिर गूँज उठा राऊ पटाखों की फेक्टरी के भयानक विस्फोट से ... चिथड़े बन उड़ते शरीर, ज़िंदा जलते जीवित लोग...उजड़ते परिवार .. आज राऊ में, कभी ग्वालियर में.. तो कभी जबलपुर में .. विस्फोटों की यह श्रुंखला चलती ही रहती है और जब विस्फोट हो जाता है, कई परिवार उजड़ जाते हैं, कई मासूम अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं .. तब जागता है प्रशासनिक अमला अगली कारवाई हेतु .. मानो शासन रूपी देवता की आँखें नरबली के बाद ही खुलती है |
क्या इसके पहले शासन को यह पता नहीं होता कि फलां जगह पर पटाखे बनाए जाते हैं ? क्या दुकानों में भरे जखीरे या गोदामों में असुरक्षित तरीके से भरे गए माल की जानकारी प्रशासन की अनुभवी आँखों से छुपी रहती होगी? फिर समय रहते कारवाई करने की बजाय हमेशा किसी दुर्घटना के घटने का ही इंतज़ार क्यों किया जाता है ?
यह बात आज शायद हर अशिक्षित को भी मालूम है कि पटाखे जलाने से वायु में जहरीली गैसों का स्तर बढ़ता है जो दीपावली जैसे त्योहार बीतने के महीने भर बाद तक भी वायु में कायम रहता है | इस तथ्य से भी लोग अनजान नहीं है कि इन फेक्टरियों में काम करने वाले लोग प्रत्यक्ष् और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूप में खतरे के ग्रास बने ही रहते हैं.. यदि भयानक विस्फोट हुआ तो जान जानी है.. यदि विस्फोट नहीं भी हुआ तो भी जहरीले रसायनों का धीमा ज़हर उनके शरीर में प्रवेश कर उन्हें भयानक लाइलाज बीमारियाँ दे ही देता है | यह भी सर्व विदित है कि कानूनन बाल श्रमिक प्रतिबंधित होने के बाद भी इन पटाखों के कारखानों में बड़ों के साथ बच्चे भी बहुतायत में श्रम करते हैं और इन दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं..वे तो पेट के लिए अपनी जान की बाज़ी खेलते हैं पर क्या निरीक्षण के लिए जाने वाला अमला इस तथ्य से अनजान रहता होगा ?
वातावरण के प्रति सामान्य जागरूकता रखनेवाले लोग ओजोन परत के क्षरण के बारे में भी जानकारी रखते हैं जिसका एक बड़ा कारण पटाखों से निकालने वाला धुंआ भी है | हम बड़े बड़े ढोल पीट पीटकर प्रदूषण हटाओ, प्रकृति को बचाओ जैसे नारे लगाते है.. इतनी जागरूकता होने पर भी क्या ये आंकड़े चौकाने वाले नहीं है कि गत दस वर्षों में पटाखों की खपत लगभग चौगुनी हुई है और इनकी विषाक्तता भी दोगुनी हो गई है ? पहले केवल बड़े उत्सवों पर चलाए जाने वाले पटाखे अब जरा-जरा से समारोह के अंग बन गए हैं.. यानि अपनी खुशी को दर्शाने के लिए प्रकृति को सौ-सौ आंसू रुलाना आज का चलन बन गया है |
हैरत यह है कि ऐसी हर बात के प्रति सरकार का रवैया ढुल-मुल ही रहता है ... जिस उत्पादन से हानि ही हानि हो, उसपर तुरंत रोक क्यों नहीं लगाई जाती? क्यों नहीं इस उद्योग में संलग्न श्रमिकों को कही अन्य स्थान पर पुनर्वास दिया जाता ... मगर यह खेल फिर टेक्स और सेटिंग का आ जाता है क्योंकि विस्फोट में झुलसने वाले गरीब होते हैं मगर आमदनी के हकदार रसूखदार होते हैं | यही हाल कमोवेश शराब और सिगरेट के लिए भी कहा जा सकता है... शराब आज युवाओं के पथभ्रष्ट होने का मुख्य कारण बन गया है मगर फिर भी हर वर्ष दर्जनों सरकारी ठेके आबंटित होते हैं... इस शराब से कितने गरीबों की गृहस्थी उजडती है किसी को देखने की फुरसत नहीं है क्योंकि उनके अपने खजाने इन्ही की अवैध कमाई से आए करोड़े के टैक्स से भरे जा रहे हैं... अब इस रकम के आगे हजार-सौ जानों की क्या बिसात ..
कहावत है कि जब बड़े अक्षम हो जाए तो छोटों को अपने स्तर पर काम करना होता है... जो गलत है उसके प्रति समाज में जागरूकता जगाना हमारा भी फ़र्ज़ है.. हर परिवर्तन के लिए सरकार या क़ानून का मुंह ताकने की बजाय जागरूकता लाने का प्रयास हम भी कर सकते हैं.. क्या होगा यदि सारे बच्चे दीपावली पर पटाखे चलाने के लिए मना कर दे? जब खपत ही नहीं होगी तो उत्पादन घटेगा ही और धीरे-धीरे इनका अस्तित्व लुप्त हो जाएगा | इसके लिए जागना होगा शिक्षकों को और पालकों को.. वैसे भी पटाखों ने क्यों और कैसे हमारे शांत उत्सवों में धमाकों के साथ प्रवेश किया पता नहीं पर यह धमाके हमें हर तरह से महंगे पड़ने वाले हैं अतः देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते ऐसी हर बुराई के बारे में समाज को जागरुक करें जो देश-समाज या प्रकृति के लिए घातक है... उत्सव और त्योहार खुशियाँ बांटने के लिए हैं... कुछ पल की अपनी खुशी यदि दूसरे के जीवन में अन्धेरा करने वाली है तो ऐसे उत्सव मानाने का क्या फ़ायदा... जरा सोचे और जान जागरण का प्रयास करे..
भारती पंडित
इंदौर

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