मुझे अनायास ही बचपन की शादियों का स्मरण हो आया. मैं ठेठ मराठी परिवार में जन्मी थी. किसी भी रिश्तेदार के यहाँ शादी होती थी तो छह महीने पहले घर में हलचल मच जाती थी. घर की परिस्थिति साधारण होने से ऐसे किसी भी अवसर पर बाहर पहने जाने वाले कपड़ों से तैयारी करनी शुरू की जाती थी. फिर लेन-देन के बारे में विचार होता था. हम बच्चों के लिए बारात में जाना यानि जलेबी और मोतीचूर के लड्डुओं की दावत जो केवल शादी आदि समारोह में ही नसीब हो पाती थी. आठ दिन पहले से शादी वाले घर में मेहमानों का जमघट लग जाता था. घर की बुजुर्ग सी ताई-मामी आदि रसोई का जिम्मा सम्हाल लेती थी और मेजबान स्त्री को अन्य कामों के लिए मुक्त कर देती थी. घर के आंगन में पंगत की पंगत जीमने बैठती थी.. घर की साफ़ -सफाई और कपडे आदि धोने का जिम्मा किशोर होती लड़कियों को सौप दिया जाता था. मोहल्ले का चित्रकार घर के सारे दरवाजों पर वन्दनवार बना जाता था. फिर उस पर नारियल वाला तोरण लटकाया जाता था , जो देखे उसे पता चले कि इस घर में जल्दी ही विवाह उत्सव आयोजित होने वाला है.
दोपहर भर शादी की तैयारी के साथ गपशप चलती रहती.. सबकी बहू-बेटियों की पूछताछ के साथ इसकी उसकी खामियां भी निकाली जाती. मामी-चाची-भाभी अपने अपने पतियों की शिकायत करती और उम्र और रिश्ते में बड़ी स्त्रियाँ उन्हें अच्छी डांट पिलाती.
सुहाग गीत, मंद शहनाई , ढोलक की थाप से घर गूंजने लगता. मेहंदी गलाई जाती, बारीक सींक की सहायता से उसे दूल्हे/दुल्हन के हाथों में लगाया जाता. बाकी सारी औरते भी अपने हाथ रंग लेती. उस समय न तो किसी कोन आदि का प्रचलन था और न ही ब्यूटी पार्लर के अभ्यस्त हाथ की दरकार... जो कुछ उपलब्ध होता था, उसी में खुशी मना ली जाती थी.
शादी के निमंत्रण की भी बड़ी अनोखी सी प्रथा थी. अत्यंत निकट के रिश्तेदारों को तो कई दिन पहले का आमंत्रण रहता था. शहर के अन्य निकटस्थों को सीमान्त पूजन और विवाह दो दिन बुलाया जाता था. अन्य को केवल विवाह और भोजन का और केवल साधारण परिचितों को ' विवाह की अक्षत डालने का ' निमंत्रण दिया जाता था. विवाह लगने के बाद ऐसे लोगों को एक लड्डू, पेढा या पेठा खाकर विदा होना पड़ता था. कई बार तो निमंत्रण पत्र पर 'केवल दो व्यक्तियों को भोजन के लिए आना है ' ऐसा भी लिखा मिल जाता था. ऐसे में दस लोगों वाले घर में विवाह भोजन के लिए किसका चुनाव हो यह भी विवाद का विषय बन जाता था. जब ऐसी कोई विवाह पत्रिका घर में आती थी तो बड़ी निराशा होती थी.
विवाह समारोह में भी गीत-संगीत का बड़ा महत्व रहता था. वरमाला के समय मंगलाष्टक गाए जाते थे, तो भोजन के समय 'विहीण ' गाने की प्रथा थी. कुल मिलाकर सारा माहौल बड़ा जीवंत रहता था. ना ज्यादा चकाचौंध, ना कोई शो-ऑफ .. जिसकी साडी ज्यादा भारी, वह ज्यादा शान दिखाती. वही कई बार कोई मामी अपनी साडी और जेवर किसी कमजोर स्तर की भांजी को देती भी नजर आ जाती.
विवाह के बाद भी ख़ास मेहमान कुछ दिन रुकते, बिखरा घर समेटते और लेन-देन का हिसाब भी करवाते. इस तरह मन में मधुर स्मृतियों के साथ इस भावना के साथ सभी विदा लेते कि हमारे घर की शादी में भी ऐसा ही सहयोग हमें प्राप्त होगा. स्नेह, सहयोग और सद्भावना का अनूठा उधाहरण बन जाती थी ऐसी शादियाँ ..
अब सब कुछ रेडीमेड हो गया है.. सारी व्यवस्था केटरिंग और इवेंट मेनेजर के सुपुर्द कर दी जाती है, विवाह से एक रात पहले मेहमान फ्लाईट से आते हैं, कोई भी किसी तरह की असुविधा नहीं चाहता अतः साथ -साथ रहने और गपशप करने का सवाल ही नहीं उठता . बस समारोह अटेंड किया, भारी-भरकम उपहार दिया , रिश्तेदारों को हेलो- हाय किया, भोजन के बाद शाम की फ्लाईट से रवानगी..
बेहतरीन व्यवस्थाएं हैं, शान-शौकत है, चकाचौंध है.. शोर-शराबा भी है.. मगर जिन मूलभूत उद्येश्यों को लेकर इन समारोहों की नीव रखी गई थी.. वे पूरी तरह मिसिंग ही रहते है.. सब कुछ मशीनी.. क्या ऐसे किसी समारोह में भावनाओं की कोई भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है?
भारती पंडित
इंदौर
बहुत ही अच्छी पोस्ट दिल को छू गई
ReplyDeletesahi kaha aapne
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