कविता
माँ
माँ
तुम जो चल पडी अनंत यात्रा के पथ पर
सुगंध विहीन हो गए गुलाब सारे
विलीन हो गई पाजेब की झनकार
और मूक हो गए सरगम के सातों स्वर
अब भी जब यादों के पंछी फड़फड़ाते हैं अपने पंख
खोलकर झरोखे स्मृति के
तो लगता है तुम यही हो
मेरे नजदीक , बिलकुल समीप
बिंदिया सजाती , चूड़ी खनकाती
तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाती
सांध्य दीप जलाती
मेरी पसंद का भोजन बनाती
लाड-मनुहार से मुझे खिलाती
हां यहीं तो थी तुम
गीता ज्ञान मुझे बताती
संस्कारों का पाठ पढ़ाती
मेरी नासमझी को अपनी
समझा से संवारती
मेरी विदाई पर आंसू बहाती
मेरे बिखेरे चावल अपने
आंचल में संजोती
हां यही तो थी तुम
और शायद आज भी यहीं हो
मेरी स्मृति में , संस्कारों में
मेरी उपलब्धियों में, मेरे विचारों में
मेरी हंसी में , मेरे गम में
मेरे अस्तित्व के हर रोम में
रची बसी बस तुम ही हो
हाँ माँ ,
तुम न होकर भी यहीं हो
क्योंकि अपने रूप में रचा है
तुमने मुझे
अपनी परछाई, अपनी पहचान बनाकर
भारती पंडित
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