कल ही शिर्डी से वापस आई . बाबा के दरबार में जाने का हमेशा ही चाव रहता है.. मगर इस बार चार साल बाद जाना हुआ.. और एक बात तीव्रता से अनुभव हुई कि चमत्कार को सभी नमस्कार करते हैं.. जैसे जैसे भक्तों के मन में देवता का स्थान बढ़ने लगता है, मंदिर के गुम्बद में स्वर्ण की मात्रा बढ़ने लगती है और मंदिर की दीवारों को भी इस कदर स्वर्ण जडित कर दिया जाता है कि गहन सुरक्षा में भगवान कही भक्तों से बहुत दूर रह जाते है.. इस बार शिर्डी में भयंकर भीड़ थी, दूर दूर से भक्त आए थे .. गरीब से गरीब और अमीर से अमीर बाबा के एक बार दर्शन की आस लिए उत्सुक था दरबार में हाजिरी लगाने के लिए.. उनमें से एक मैं भी थी .. कई सारी मन्नते थी जो बाबा ने पिछले वर्षों में पूरी की थी.. कई सारी बातें थी जो बाबा से कहनी थी..मगर दो घंटे निरंतर पसीना बहाने के बाद जब बाबा के समीप जाने का मौका मिला.तो उस मूर्ति की भव्यता को नयनों में भरने से पहले ही पुलिसवाले ने धकिया दिया.. केवल मेरे साथ ही नहीं, हरेक भक्त के साथ ऐसा ही व्यवहार हो रहा था .. यहाँ तक कि लाया गया प्रसाद और फूल आदि भी समाधि को स्पर्श तक कराने की जरुरत नहीं समझी जा रही थी .. मेरा बेटा तो रो पड़ा कि मैं बाबा को ठीक से देख भी नहीं पाया.. मंदिर से बाहर निकलते हुए मन में एक ही सवाल उठ रहा था.. क्या श्रद्धा का इस तरह का व्यवसायीकरण उचित है? क्या बाबा का मन भक्तों से दूर रहकर या अपने भक्तों को यूं धकियाते देखकर दुखता नहीं होगा ? कितने गरीब तो बड़ी मुश्किल से किराए की जुगाड़ करके आए थे .. उन्हें क्या इस तरह के दर्शनों की आशा होगी ? एक सवाल यह भी उठा कि जब प्रसाद बाबा को चढ़ाना ही नहीं है तो बाहर प्रसाद के नाम मनमानी लूट मचाने की आजादी क्यों दी जाती है ? ५०० रुपये देकर वी.आई.पी. दर्शन भी मेरी समझ से बाहर थे..
कुल मिलाकर इस बार न तो मैंने बाबा से कुछ माँगा , ना ही अगली बार फिर आने का मौका देने को कहा.. मुझे यही लगा कि इससे तो अच्छा है अपने घर के मंदिर में या शहर के मंदिर में जितना चाहो, उतनी देर बाबा के साथ वक्त बिताना .. वेतन का जो हिस्सा उनके नाम निकल कर रखती हूँ, उसे किसी गरीब को दान करना .. शायद उनमे मुझे मेरे भगवान के दर्शन हो जाए..यूं भी मन में हमेशा बसने वाले बाबा का दर्शन तो हमेशा सुलभ है..
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