Monday, June 20, 2011

पितृ दिवस

पितृ दिवस पर दिवंगत पिताजी की स्मृति में दो कविताएँ ..जिन पौधों को उन्होंने रोपा था, उन्हें पुष्पित होते देखने से पहले ही वे चल बसे..

१. पिता का साया

खुशहाल घर पर पिता का साया
मानो आँगन की धूप में बरगद की छाया
छाया जो सहती है सूरज की तपन
ताकि घर को न छू पे कोई अगन
शाखाओं सी फैली पिता की वो बाँहे
जो रोकती है हरेक संकट की राहें
फौलाद सा बना सीना पिता का
जिससे लिपट बोझ हल्का हो जां का
जड़ों सी गहरी सोच है पिता की
पीढी दर पीढी संस्कार तराशती
मिलती रहे बच्चों को ये इनायत
हर घर पर ये साया रहे सलामत

-------------------------------------------------------------------------------------------------------

२.याद आती है पिताजी की सूनी आँखें

आजकल अक्सर याद आती है
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थी देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।

आजकल अक्सर याद आता है,
पिताजी का तमतमाया चेहरा,
जो बिफर-बिफर पड़ता था,
मेरे देर से घर लौटने पर।

अब भली लगती हैं,
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुन-सुन कभी,
उबल-उबल जाता था मैं।

आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी,
जो कभी हुआ करती थी,
उलझन का सामान मेरी।

अक्सर हैरान होता हूँ इस बदलाव पर
जब उनके रूप में खुद को पाता हूँ।
क्योंकि अब मेरा अपना बेटा
पूरे अट्ठारह का हो गया है।
भारती पंडित

No comments:

Post a Comment