Tuesday, October 23, 2012

एक दिवसीय साम्राज्य





बिट्टू को समझ में ही नहीं आ रहा था कि आज दादी से लेकर चाची, बुआ सबको हो क्या गया है. रोज तो उसे खूब भाव मिलता था, उसकी मान-मनुहार की जाती थी, उसके पहले  हुई तीन बहनों को तो कोई गिनती में गिनता  भी नहीं था . दादी तो सुबह होते ही उसके हाथ में दूध से भरा गिलास पकडाती थी ,साथ होता था मलाई लगा टोस्ट और बहनों को चाय से आधे भरे गिलास देकर काम पर लगा दिया जाता था . लड़की की जात हो, काम करना सीखोगी तभी ससुराल में निभोगी.. नहीं तो नाक कटाएंगी निगोड़ी.. जैसे प्रवचनों से ही बहनों का नाश्ता भी हो जाता था.. ..
पर आज तो रंग ढंग ही निराले थे. सुबह ही तीनों को बढ़िया उबटन लगाकर नहलाया गया, बालों की सुन्दर चोटी की गई, नए कपडे पहनाकर ऐसे तैयार किया गया मानो कोई त्योहार हो. बिट्टू की ओर तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया . देखते ही देखते घर में और भी लड़कियां जमा हो गई. पिताजी ने सबके पाँव पूजे, गरमा-गरम खीर पूरी खाने को दी. बिट्टू ने खीर के कटोरे को हाथ लगाया तो पिताजी ने आँखे लाल-पीली करके कहा," दस मिनिट सबर नहीं हैं, पहले कन्या तो खा ले.."
सारी कन्याएं घर-घर घूमती फिरी. यहाँ-से न्योता, वहाँ से न्योता ... खा-खाकर अघाई, खूब सिक्के, तरह तरह की चीजें इकठ्ठी कर घर ले आई. 
बिट्टू उदास हो घर के बाहर बैठा था कि पास का गुड्डू आया," क्या हुआ बोंस, परेशान क्यों हो?" बिट्टो ने मन की दुविधा कह डाली. मन में डर था कि कही उसका राजसिंहासन डोल तो नहीं रहा है..गुड्डू ठठाकर हंस पडा.." अरे चिंता मत कर छोरे, आज नवमी है ना ..देवी माँ का दिन.. बस एक ही दिन का राज -पाट है इनका .. कल से फिर जुट जाएँगी अपने काम-काज में.. अगली नवमी के इन्तजार में.."
. एक कड़वा सच..और सचमुच ही शाम होते ही घर-घर में कठोर पुकार मचने लगी.. अरी निगोड़ी.. खेलती ही रहेगी या माँ के साथ हाथ भी बंटाएगी?
 बिगुल बज गया था.. एक दिवसीय साम्राज्य के अंत का ...
भारती पंडित 

Monday, October 8, 2012


हसीं मोड़ 
अभी कुछ ही कदम चला था मैं 
महत्वाकांक्षा की राह पर 
इक हसीं मोड़ मिला और 
मिली दो चंचल आँखें 
कदम बहके थे ,अरमां दहके थे 
हौले से थामा था हाथ उसका 
खाकर साथ निभाने की कसमें 
हसीं मोड़ मुस्कुराया चंचल आँखें शरमाई 
फिर अभिलाषा भारी हुई चाहत से 
मैंने हौले से छुड़ाया था हाथ उसका 
और चल पड़ा था कहकर -'फिर मिलेंगे..'
हसीं मोड़ सहमा था ,चंचल आँखें बरस गईं ..
मैं बेखबर चल पड़ा था तरक्की की राह पर 
चलता रहा , भागता रहा 
कमाता रहा ,खर्चता रहा 
लुटता रहा , लुटाता रहा ..
एक दिन थककर हाँफ गया ..
जब बारी आई छालों भरे पांवों को सहलाने की 
तो अचानक याद आया वो मोड़ 
और याद आई वो चंचल आँखें .
लौट चला मैं उस राह पर 
जो जा मिलती थी उस मोड़ से 
जब पहुंचा तो पाया सब बदला सा 
वह मोड़ अब रास्ते में बदल गया था 
और चंचल आँखें हो गई थी पराई ..
हाँ जो पौधा हमने लगाया था ,
जिसे सींचा था उसके आँसुओं ने ,
उसपर मुस्कुरा रहे थे दो गुलाब 
मानो कहते हैं उपहास से 
"बहुत देर कर दी "..

Friday, October 5, 2012

Aalekh

भूख छपास की
आइए आज भूख की बात करते है..भूख केवल पेट की ही नहीं होती.. एक भूख होती है छपास की और मंच की. इस भूख को एक बीमारी भी कह सकते है, जिसका वाइरस अधिकतर साहित्यकारों को और कलाकारों को अपनी चपेट में लेता है.. कलाकार भी वे जिनके ढोल में पोल होती है. यह वाइरस धीरे-धीरे दिमाग में घर करता जाता है और सारे व्यक्तित्व पर हावी होता जाता है. इस भूख से पीड़ित व्यक्ति की आत्माभिमान करने के शक्ति बहुत बढ़ जाती है.. उसे अपनी कला पर आत्मविश्वास नहीं, अति विश्वास हो जाता है. वह दूसरों की सुनना बिलकुल बंद कर देता है और अपनी ढपली-अपना राग आलापना शुरू कर देता है. किसी समारोह में जाने पर उसकी पहली कोशिश होती है मंच पर चढ़कर माइक हथियाने की.. यदि सरलता से मिल जाए तो ठीक, अन्यथा वह "बस जरा सा कुछ कहना है" कहकर मंच पर चढ़ जाता है. कई बार तो इस मंच के लिए आयोजकों के कोपभाजन बनने से भी नहीं डरता . यह दीवानगी तब और बढ़ जाती है, जब समारोह को कवर करने रिपोर्टर्स आते है.. फिर तो धक्का-मुक्की करके ऐसी जगह पहुचने का प्रयास होता है कि कल के अखबार में मुखड़ा उनका ही चमकना चाहिए.. चाहे समारोह में कोई भागीदारी हो या न हो.. जब बहुत प्रयासों के बाद भी फोटो में जगह नहीं मिल पाती, तो सेटिंग करने से बाज नहीं आते.. और भगवान की दया से यदि किसी समारोह में कोई कविता सुनाने(मुख्य अतिथि के आने में देर होने पर) या गीत गाने का मौका मिल जाए, तो जोड़-तोड़ करके ,अपने प्रभाव या पद का उपयोग करके ऐसी जुगाड़ फिट करते है कि समारोह चाहे कोई भी हो, मुख्य धारा के समाचार में अपना नाम और फोटो डलवाकर ही दम लेते है.. आयोजक बेचारा अगले दिन का अख़बार देखकर बाल नोचकर रह जाता है .. उसके आयोजन के समाचार का बदला रूप देखकर सिवाय मन ही मन गाली देने के कर भी क्या सकता है .. मगर अगली बार उसे अपने आयोजन में कदम भी न रखने देने की कसम खा लेता है..
ये तो हुए लक्षण .. अब सवाल यह कि इस बीमारी का इलाज क्या हो..कई विशेषज्ञों से चर्चा करने के बाद पता लगा कि इस बीमारी का सिर्फ एक इलाज है और वो है अपने विषय में पारंगत होना.. जब मन में ज्ञान गंगा बहने लगेगी, तो व्यक्ति पठन-मनन में रूचि लेने लगेगा , जिससे संभवतः उसके मन की मलिनता दूर हो जाए और वह आत्म मंथन करने में सक्षम हो जाए. अपने आप को उस स्तर तक उठाने का प्रयास करने लगे, जब छपने के लिए उसे जोड़-तोड़ न करने पड़े, वरन लोग स्वयं उसके पीछे आने लगे..
खुद को कर इतना बुलंद कि आसमां लगे कमतर
उधारी से न भर दामन, बना खुद ही को बेहतर..
भारती पंडित
इंदौर

Pls think




चार दिनों से घर का नल लीक कर रहा है,प्लंबर के निहोरे कर-करके परेशान हूँ मगर वह है कि जबरदस्त भाव खा रहा है, खाए भी क्यों नहीं, पूरी कॉलोनी में अकेला ही है वह जो यह काम करता है..आजकल कोई भी पुश्तैनी काम जारी नहीं रखना चाहता, उसने भी आपने बेटे को बड़े स्कूल में डाला है, अफसर बनाने को..जरा कल्पना करें अगले २० वर्ष बाद की जब सामने खड़ी होगी अफसरों की भीड़ और न तो कारीगर मिलेगा, न प्लंबर..न बढई..न लोहार..क्या इनके न रहते सुव्यवस्थित घर केवल रूपए के बल पर बन सकेगा? क्या इन्हें परंपरागत व्यवसायों में बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए?  क्या इनके काम को आदर से नहीं देखना चाहिए?
.
गणपति बप्पा की स्थापना, दस दिन तक उनका घर में निवास, पूजन-प्रसाद यहाँ तक तो सब बढ़िया लगता है..मगर फिर आता है विसर्जन का दिन,
वैसे ही बप्पा को विदा करते हुए मन भरा हुआ होता है उस पर विसर्जन के नाम पर यहां-वहां फैलाए गए निर्माल्य यानि कचरे के ढेर और पेयजल स्तोत्रों को प्रदूषित करती बप्पा की विखंडित प्रतिमाएं आखों में आँसू ही ले आती है | लोकमान्य तिलक जी द्वारा एक पवित्र उद्देश्य से शुरू किए सामूहिक गणेश उत्सव प्रदूषण के इस भयानक मंज़र के रूप सामने आएँगे, ये यदि वे जानते तो इस प्रथा को हरगिज़ शुरू न करते | हमारी धार्मिक मान्यताएं पर्यावरण रक्षा में क्यों कमजोर पड़ जाती है, समझ में नहीं आता. ना तो हम प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ती लेना बंद करते हैं, ना ही उनका आकार छोटा रखना चाहते हैं , ना ही उनका तरीके से विसर्जन करना चाहते हैं..अब इस समस्या का हल तो बप्पा आप ही निकाल सकते हो..मैं तो कहती हूँ क़ि दस दिन शान से घरों में विराजो और अंतिम दिन स्वयं ही अंतर्धान हो जाया करो ..प्रदूषण का संकट ही ताल जाएगा..बप्पा, मेरी सलाह पर विचार जरुर करना ..

Friday, May 4, 2012

आज मन उदास है ....


आज मन उदास है 
सारा परिश्रम व्यर्थ जा रहा
सफलता की नहीं कोई आस है 
आओ सूरज को ढंकते बादलों को देखे 
जो एकजुट होकर होड़ करते है 
सर्व शक्तिमान सूरज से 
और ढँक ही लेते है उसे 
शक्ति को परिश्रम से हरा...

आज मन उदास है 
परिस्थितियाँ प्रतिकूल जा रहीं 
निराशा के गहन तिमिर में 
आशा की नहीं उजास है ..
आओ वृक्षों का उलाहना सहते 
नन्हें पौधों को  देखे 
जो झुक जाते हैं तूफ़ान में 
इसीलिए फिर  से लहलहाते हैं 
बसंत आने पर ...

आज मन उदास है 
उम्रभर दुनियादारी में रमा 
पुण्य न कोई पास है ..
चलो कोई अंधेरी दहलीज़ करें रोशन 
या किसी बिलखते बच्चे को दे 
हंसी की सौगात 
क्योंकि भगवान इन्हीं में बसते हैं 
वे यहीं कहीं मिलते हैं...

भारती पंडित 

Tuesday, April 24, 2012

साहित्यिक सम्मान बनाम....???


  कल एक साहित्यिक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. आजकल अक्सर ऐसा होता है कि बड़ी उमंग से कार्यक्रम में जाती हूँ.. और फिर वहाँ की अव्यवस्था या अस्तरीयता के चलते मन खट्टा हो जाता है .. ऐसा ही कुछ कल भी हुआ.. मंच संचालक की स्क्रिप्ट गड़बड़ा रही थी.. चलो माफ़ किया ..मंच पर अव्यवस्था थी.. वह भी माफ़ किया जा सकता था मगर जो सबसे असहनीय था वो यह कि साहित्यिक सम्मान के लिए जिन  २१ साहित्यकारों को चुना गया था, उनकी पुस्तकें बाहर प्रदर्शित की गई थी..अत्यंत दुःख की बात यह कि तीन-चार  नामचीन लेखकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी का लेखन एकदम बकवास {क्षमा चाहती हूँ } था और उन्हें ऐसी कृतियों के लिए सम्मानित करना यानि साहित्य का अपमान ही है...
मेरा सर्वाधिक रोष तो उन प्रकाशकों पर है जिन्होंने पुस्तक प्रकाशन के द्वार अच्छे  साहित्यकार के लिए एकदम बंद  कर दिए हैं ,यदि कोई बिना रूपया खर्च किए अच्छा साहित्य भी प्रकाशित करवाना चाहे तो उसे नानी याद आ जाती है.. दूसरी ओर २०-२५ हज़ार की राशि नकद देकर कुछ प्रकाशक बकवास साहित्य भी खुशी से छाप रहे है क्योंकि साहित्य के स्तर को बनाए रखने का ठेका उन्हें नही सौपा गया है...इसी के चलते बेकार साहित्य पुस्तकाकार रूप में आ जाता है और शहर  की आम-ख़ास संस्थाओं के सम्मान समारोह में इन सो कॉल्ड साहित्यकारों को सम्मान बाँट दिए जाते है..
      मेरा दूसरा प्रश्न है उन संस्थाओं  से जो इस तरह के सम्मान समारोह आयोजित करती हैं.. क्या ये समारोह केवल खाना पूर्ति के लिए ही आयोजित किए जाते है या वास्तव में अच्छे साहित्य से इनका कोई लेना-देना भी होता है? या आबंटित बजट को खर्च करने का रास्ता बनाया जाता है इनके ज़रिए? क्या पुस्तकों की जाँच के लिए समिति बनानी जरुरी नही है? सम्मान लायक पुस्तक न मिलने पर  संस्था के द्वारा यह विज्ञप्ति क्यों नहीं जारी की जाती कि " इस वर्ष कोई भी पुस्तक सम्मान लायक नही पाई गई? " क्या साहित्य के स्तर की रक्षा हेतु यहकदम उठाना जरुरी नहीं समझा जाता? 
 आजकल किताबें नही  पढी जाती यह गुहार लगाने वाले इन साहित्यकारों और इन संस्थाओं को यह समझना चाहिए कि बेकार साहित्य की बहुलता में अच्छा साहित्य कहीं गुम हो रहा है और जब पाठक के पल्ले ऐसी पुस्तकें पड़ती हैं तो वह पुस्तकों से दूर भानागे का ही प्रयास करता  है.. 
स्वांत सुखाय लिखने  और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अधिकार सबको है मगर कुंदन बने बिना साहित्य के आभूषण में जड़कर उसे बदसूरत बनाने का अधिकार  किसी को नहीं मिलना चाहिए..

Monday, April 16, 2012

सपनों की सुबह

हर सुबह
जब दफ्तर जाती हुई भीड़ का एक हिस्सा बनकर
दो-चार होती हूँ सड़क के ट्रेफिक से
तब अंतर्मन में दबी एक सुप्त सी आशा
हौले से सिर उठने लगती है ..
जब कभी देखती हूँ किसी को
सुबह-सुबह जोगिंग करते
या बालकनी में बैठ चाय सुड़कते ,
अखबार पलटते ..तो
ईर्ष्या की नन्ही सी चिंगारी सुलग जाती है मन में
और फिर दबी सी वह आशा
फिर सिर उठाने लगती है ..
क्या कभी ऐसा होगा जब
मेरा समय होगा सिर्फ मेरा अपना
और होगा सब कुछ वैसा जैसे मैं चाहूँ..
जब मैं सोना चाहूँ, न हो अलार्म की टन-टन
जब मैं कुछ पढ़ना चाहूँ , न हो बर्तनों की खडखडाहट
ना हो सुबह की आपाधापी
ना हो शाम की खींचा तानी
बस घर हो सपनों के घर जैसा और
मैं बन जाऊं उस घर की रानी
बस के धचके के साथ ही जाग जाती हूँ
अपने टूटे सपने के किरचें समेटे
टूटी आशा को फीकी हँसी में समेटते
जानती हूँ मेरी ये सोच बेमानी है,
हर मिडिल क्लास नारी की
बस यही कहानी है ..
जहाँ सपने सिर्फ सपने होते हैं
और यथार्थ हर सपने पर भारी है ..
उस पर नारी की दोहरी जिम्मेवारी है
सब कुछ निभाकर भी बेचारी है ...
रोज सुबह इसी सपने के साथ
शुरू करती हूँ दिन अपना
और फिर दिखा देती हूँ माचिस उसे ..
और.. हर नई सुबह फिर थाम लेती हूँ
उम्मीद भरे सपने का दामन
की वो सुबह कभी तो आएगी ..

भारती पंडित

Friday, March 30, 2012

राम नवमी के पावन अवसर पर मेरे द्वारा रचित संक्षिप्त रामायण आपके सामने प्रस्तुत है |

संक्षिप्त रामायण
शरयू तटे अयोध्या नगरी ,राजा दशरथ जिसके प्रहरी |
तीन रानियाँ सुघड़- सलोनी ,राज मंत्री जिनके बहुज्ञानी ||

पुत्र प्राप्ति हित यज्ञ कराये, चार सुयोग्य पुत्र तेहि पायो |
गुरु वशिष्ठ ने शिक्षा दीन्ही ,बने कुमार योग्य अति ज्ञानी ||

विश्वामित्र आए दरबारा,लियो साथ द्वय ज्येष्ठ कुमारा |
दंडक वन में करे विहारा,करे त्राटिका असुर संहारा ||

मिथिला नंदिनी जनक कुमारी ,हुआ स्वयंवर जिसका भारी |
शिव धनुष्य पर डोर चढ़ाए ,जनक कुमारी पत्निवत पाए ||

बढे राम गुरु अनुमति पाई , शिव धनुष्य पर डोर चढ़ाई |
हर्षित जनक नंदिनी आई , राम कंठ जयमाल चढ़ाई ||

दशरथ बहुविधि करे विचारा, राज-पाट सब राम सम्हारा |
दासी मंथरा दुर्बुद्धि जानी , कैकयी भाई स्वयं अज्ञानी ||

राज-पाट सब भरत संहारे, राम अभी जाए वन द्वारे |
आर्तनाद करते रहिवासी , व्यथित अयोध्या छाई उदासी ||

चले राम पितु आज्ञा पाए ,सिया-लखन राम संग आए |
पंचवटी में कुटी बनाई,हर्षित मुदित सिया बहुताई ||

शूर्पनखा विचरती थी वन में , राम-लखन भाये तन-मन में |
प्राण जानकी हरने आई,शूर्पनखा ने नाक कटाई ||

शूर्पनखा भागी बंधुमुख , व्यथा कहे रावण के सम्मुख |
रावण मृग सुवर्ण पहुँचायो ,राम-लखन कुटि दूर करायो ||

भिक्षु वेश रावण करि जाई, सीता हरण दुष्ट करि पाई |
व्यथित राम भटके वन-वन में ,हनुमत मिले साधु के वसन में ||

संग सुग्रीव मित्रता कीन्हीं , अरज सभी उसकी सुन लीन्हीं |
बाली मार राज पुनः लीनो ,हनुमत खबर सिया की दीन्हों ||

राम जलधि उर सेतु बनाए,सिया मुक्ति हित दूत पठाए |
गर्वित रावण करे हुँकारा, युद्ध यही बस हेतु हमारा ||

हुई गर्जना वीरों की तब , दिशा चहुँ होती थी झंकृत |
गूँजे बहुल शस्त्र टंकारा, चहु दिसी मचाता हाहाकारा ||

डस दिन भयो युद्ध अति भारी ,सकल असुर सेना संहारी |
रघुवर बाण अचूक चलायो, मृत्यु द्वार रावण पहुँचायो ||

रावण मरे मुदित हुई लंका ,सिया-राम का बजता डंका |
प्रिया जानकी सम्मुख आई, हर्षित मुदित हुए रघुराई ||

सिया-लखन सह देस पधारे ,अवध नगर के भाग सँवारे |
मंगल गाए अवध नर-नारी ,रघुवर चरण लायो सुख भारी ||

bharti pandit


Tuesday, March 27, 2012

यादें

जीवन की हलचल में कोमल से कुछ पल
छूते है दिल को और बनती है यादें |
समतल सी राहों में नुकीले से पत्थर
चुभते हैं पग में और बनती है यादें |
गर्म दुपहरी में एक ठंडा सा झोंका
सहलाए तन को तो बनती है यादें |
चन्दा की चमचम को नटखट सा बादल
ढंकता है आकर तो बनती है यादें |
मीठी और कड़वी ,खट्टी और तीखी
रसना के स्वादों सी होती हैं यादें |
अपनाए उनको जो मीठी हैं यादें
दिल को दुखाए ,वो यादें भुला दें|

यादें

जीवन की हलचल में कोमल से कुछ पल
छूते है दिल को और बनती है यादें |
समतल सी राहों में नुकीले से पत्थर
चुभते हैं पग में और बनती है यादें |
गर्म दुपहरी में एक ठंडा सा झोंका
सहलाए तन को तो बनती है यादें |
चन्दा की चमचम को नटखट सा बादल
ढंकता है आकर तो बनती है यादें |
मीठी और कड़वी ,खट्टी और तीखी
रसना के स्वादों सी होती हैं यादें |
अपनाए उनको जो मीठी हैं यादें
दिल को दुखाए ,वो यादें भुला दें|

Saturday, March 24, 2012

वह नवप्रभात


देखती हूँ जब लोगों को सफलता का दावा करते
अपनी अयोग्यता को दिखावे में छिपाते
उधार की वर्णमाला से अपना शब्दकोश सजाते
तो सोचने पर विवश हो जाती हूँ क़ि
क्या ज्ञान सचमुच हार गया है ?

जब देखती हूँ ज्ञान को धन से हारते
सत्य की आत्म को झूठ से मारते
हर तरफ़ दंभ और धोखे की धुंध फैलाते
तो सोचने पर विवश हो जाती हूँ क़ि
क्या सत्य सचमुच हार गया है ?

तभी निराशा की धुंध में हल्की रौशनी नज़र आती है
खूठ की कालिख में सत्य की लौ टिमटिमाती है
अँधेरे में उम्मीद की किरण झिलमिलाती है
जब दूर प्रभात में मंदिर की घंटियाँ टनटनाती है
और कानों में बच्चों की किलकारी गूँज जाती है |

तब सोचती हूँ मैं क़ि
हर अमावस के बाद ही तो चाँद आता है ,
गहन अन्धकार के बाद ही तो सूरज जगमाता है
आज नहीं तो कल वह प्रभात तो आएगा
असत्य के तिमिर को चीर सत्य दमदमाएगा ,
अज्ञान की ज़ंजीर तोड़ ज्ञान का परचम लहराएगा ,
वह नव प्रभात आएगा |

Tuesday, March 6, 2012

होली गीत


फागुन आयो रंग जमायो
गूँजे हँसी ठिठोली
ले पिचकारी रंगने निकली
हुरियारों की टोली

बिरज में कान्हा खेल रहे होली
उडी रे मेरी चूनर भीग गई चोली |

रंग अबीर ले कान्हा भागे ,गोरी हाथ छुडावे
नाजुक है कलाई करो ना बरजोरी ||

फर-फर उड़ता रंग-गुलाल, सर-सर रंगों की बौछार
उसे ना सताओ दुल्हन है नवेली ||

लाल-गुलाबी -नीला-पीले रंग चढ़े न कोई
श्याम तेरी सजनी श्याम रंग हो ली ||


Friday, January 27, 2012

धूप - छांव

जीवन उम्मीदों का प्यारा सा गाँव है |
कभी धूप ग़म की है, कभी सुख की छाँव है ||

खेता जा पतवारें, क्यों माँझी तू हारे |
कभी घिरती भँवर में, कभी तीरे नाव है ||

सोच-समझ चलता जा चालें शतरंज की |
कभी शह है हिस्से में, कभी उलट दाँव है ||

हर डगर हो आसान , ऐसा हुआ है कब |
कभी फूल राहों में, कभी शूल पाँव हैं ||

Saturday, January 14, 2012

परिभाषा


गीता
मेरी कामवाली बाई की लड़की
जिसे देख अक्सर सोचती मैं
मैं भी लड़की , वो भी लड़की
फिर क्यों है अंतर इतना
कि हर सुबह मेरे हाथों में
आती है विद्या की सौगात
और उसके हिस्से में आती है
मैली सी एक झाडन..
मैं जहाँ स्कूल में अपना
भविष्य तराशती
वह चमकाती है मेरे
घर का हर एक कोना
मेरे महँगे कपडे
जो उसके लिए बनते है उतरन
मेरा स्वादिष्ट पौष्टिक भोजन
जो उसके लिए है जूठन
उस पर भी भारी अचरज कि
सारी सुविधाएँ भी दे न पाती
मुझे वह चिर संतोष
जबकि अभावों में भी वह
रहती हँसती-खिलखिलाती
असंतोष की कोई किरण
चेहरे पर न दिखाती
एक दिन मैंने उसे रोका
और पूछ ही लिया अपना सवाल
वह झिझकी, ठिठकी, हिचकिचाई
कौतुहल से मेरी आँखों में झाँकी
हौले से दिखाई थी एक उँगली
ऊपर आसमान की ओर
दूसरे हाथ में फैला दी थी
कटी फटी हथेली अपनी
गोया कि कह रही हो
समय से पहले और किस्मत से ज्यादा
ना मिले पूरा, न खोए आधा
भाग चली थी वह
चेहरे पर वही मुस्कान लिए
मैं चकित थी उसकी सादगी पर
सवाल का उत्तर पा लिया था मैंने
मेरे पास साधन थे, उसके पास सुख-संतोष
अंतर यही है.. चाहे छोटा हो या बड़ा..

Wednesday, January 4, 2012

मेरा दर्द



मौन रहूँ अधरों को सी लूं
तुम कहते हो जी भर जी लूं
जीवन रूपी इस प्याले को
घूँट-घूँट मदहोश हो पी लूं |

तुम कहते हो ना देखूं मैं
जीवन के अंधियारे पहलू
दुनिया बदल चुकी है कबसे
मैं भी तो अब खुद को बदलूँ |

कैसे मोड़ सकूंगी मैं मुख
जीवन की सच्चाई से
व्याप्त हो रही दसों दिशाएं
जब क्रंदन-करुणाई से |

खुशियां सारी साथ तुम्हारे
मेरी करुणा मेरी साथी
जी लूंगी दुःख के सागर में
जैसे जिए दीए संग बाती |

वह विहान भी आएगा
हर प्रयत्न यश पाएगा
बदलेगी जीवन की रंगत
दुःख ही सुख हो जाएगा |