गीता
मेरी कामवाली बाई की लड़की
जिसे देख अक्सर सोचती मैं
मैं भी लड़की , वो भी लड़की
फिर क्यों है अंतर इतना
कि हर सुबह मेरे हाथों में
आती है विद्या की सौगात
और उसके हिस्से में आती है
मैली सी एक झाडन..
मैं जहाँ स्कूल में अपना
भविष्य तराशती
वह चमकाती है मेरे
घर का हर एक कोना
मेरे महँगे कपडे
जो उसके लिए बनते है उतरन
मेरा स्वादिष्ट पौष्टिक भोजन
जो उसके लिए है जूठन
उस पर भी भारी अचरज कि
सारी सुविधाएँ भी दे न पाती
मुझे वह चिर संतोष
जबकि अभावों में भी वह
रहती हँसती-खिलखिलाती
असंतोष की कोई किरण
चेहरे पर न दिखाती
एक दिन मैंने उसे रोका
और पूछ ही लिया अपना सवाल
वह झिझकी, ठिठकी, हिचकिचाई
कौतुहल से मेरी आँखों में झाँकी
हौले से दिखाई थी एक उँगली
ऊपर आसमान की ओर
दूसरे हाथ में फैला दी थी
कटी फटी हथेली अपनी
गोया कि कह रही हो
समय से पहले और किस्मत से ज्यादा
ना मिले पूरा, न खोए आधा
भाग चली थी वह
चेहरे पर वही मुस्कान लिए
मैं चकित थी उसकी सादगी पर
सवाल का उत्तर पा लिया था मैंने
मेरे पास साधन थे, उसके पास सुख-संतोष
अंतर यही है.. चाहे छोटा हो या बड़ा..
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