गणपति बप्पा की स्थापना, दस दिन तक उनका घर में निवास, पूजन-प्रसाद यहाँ तक तो सब बढ़िया लगता है..मगर फिर आता है विसर्जन का दिन,
वैसे ही बप्पा को विदा करते हुए मन भरा हुआ होता है उस पर विसर्जन के नाम पर यहां-वहां फैलाए गए निर्माल्य यानि कचरे के ढेर और पेयजल स्तोत्रों को प्रदूषित करती बप्पा की विखंडित प्रतिमाएं आखों में आँसू ही ले आती है | लोकमान्य तिलक जी द्वारा एक पवित्र उद्देश्य से शुरू किए सामूहिक गणेश उत्सव प्रदूषण के इस भयानक मंज़र के रूप सामने आएँगे, ये यदि वे जानते तो इस प्रथा को हरगिज़ शुरू न करते | हमारी धार्मिक मान्यताएं पर्यावरण रक्षा में क्यों कमजोर पड़ जाती है, समझ में नहीं आता. ना तो हम प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ती लेना बंद करते हैं, ना ही उनका आकार छोटा रखना चाहते हैं , ना ही उनका तरीके से विसर्जन करना चाहते हैं..अब इस समस्या का हल तो बप्पा आप ही निकाल सकते हो..मैं तो कहती हूँ क़ि दस दिन शान से घरों में विराजो और अंतिम दिन स्वयं ही अंतर्धान हो जाया करो ..प्रदूषण का संकट ही ताल जाएगा..बप्पा, मेरी सलाह पर विचार जरुर करना ..
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