देखती हूँ जब लोगों को सफलता का दावा करते
अपनी अयोग्यता को दिखावे में छिपाते
उधार की वर्णमाला से अपना शब्दकोश सजाते
तो सोचने पर विवश हो जाती हूँ क़ि
क्या ज्ञान सचमुच हार गया है ?
जब देखती हूँ ज्ञान को धन से हारते
सत्य की आत्म को झूठ से मारते
हर तरफ़ दंभ और धोखे की धुंध फैलाते
तो सोचने पर विवश हो जाती हूँ क़ि
क्या सत्य सचमुच हार गया है ?
तभी निराशा की धुंध में हल्की रौशनी नज़र आती है
खूठ की कालिख में सत्य की लौ टिमटिमाती है
अँधेरे में उम्मीद की किरण झिलमिलाती है
जब दूर प्रभात में मंदिर की घंटियाँ टनटनाती है
और कानों में बच्चों की किलकारी गूँज जाती है |
तब सोचती हूँ मैं क़ि
हर अमावस के बाद ही तो चाँद आता है ,
गहन अन्धकार के बाद ही तो सूरज जगमाता है
आज नहीं तो कल वह प्रभात तो आएगा
असत्य के तिमिर को चीर सत्य दमदमाएगा ,
अज्ञान की ज़ंजीर तोड़ ज्ञान का परचम लहराएगा ,
वह नव प्रभात आएगा |
No comments:
Post a Comment