Saturday, March 24, 2012

वह नवप्रभात


देखती हूँ जब लोगों को सफलता का दावा करते
अपनी अयोग्यता को दिखावे में छिपाते
उधार की वर्णमाला से अपना शब्दकोश सजाते
तो सोचने पर विवश हो जाती हूँ क़ि
क्या ज्ञान सचमुच हार गया है ?

जब देखती हूँ ज्ञान को धन से हारते
सत्य की आत्म को झूठ से मारते
हर तरफ़ दंभ और धोखे की धुंध फैलाते
तो सोचने पर विवश हो जाती हूँ क़ि
क्या सत्य सचमुच हार गया है ?

तभी निराशा की धुंध में हल्की रौशनी नज़र आती है
खूठ की कालिख में सत्य की लौ टिमटिमाती है
अँधेरे में उम्मीद की किरण झिलमिलाती है
जब दूर प्रभात में मंदिर की घंटियाँ टनटनाती है
और कानों में बच्चों की किलकारी गूँज जाती है |

तब सोचती हूँ मैं क़ि
हर अमावस के बाद ही तो चाँद आता है ,
गहन अन्धकार के बाद ही तो सूरज जगमाता है
आज नहीं तो कल वह प्रभात तो आएगा
असत्य के तिमिर को चीर सत्य दमदमाएगा ,
अज्ञान की ज़ंजीर तोड़ ज्ञान का परचम लहराएगा ,
वह नव प्रभात आएगा |

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