Friday, April 30, 2010
Thursday, April 29, 2010
मदर्स डे हेतु
माँ तुझे सलाम .....
प्रकृति का हरेक प्राणी जन्म लेते ही जिस रिश्ते से प्रथम परिचित होता है, वह है माँ-बच्चे का रिश्ता... माँ और बच्चे का संबंध वास्तव में इतना अटूट है कि उसे याद करने या 'सेलीब्रेट' करने के लिए हमें 'मदर्स डे' जैसे किसी दिन को निश्चित करने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए। यह और बात है कि आधुनिकता के रंग में डूबा समाज, जो रिश्तों को भूलने में ही प्रगतिवाद की जीत समझता है, इस बहाने ही अपनी जन्मदात्री को स्मरण कर लेता है।
'माँ' शब्द उत्पति व उच्चारण से ही अपने आप में बेहद स्नेह और आत्मीयता से भरा है। चाहे इसे 'माँ' कहें, आई कहें, 'बा' कहे या 'बीजी'। इसकी मिठास सर्वत्र कायम रहती है। बीज को कोख में धारण करने से लेकर जन्म तक अनगिनत सपने सजाती माँ, नन्हे शिशु को दूध पिलाती, उसकी हर गतिविधि पर उत्साहित होती माँ, उसे किस्से-कहानियों से लेकर जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराती माँ...
माँ सिर्फ माँ ही रहती है और माँ ही होती है, जिसकी हर धड़कन सिर्फ बच्चों के लिए न्योछावर होती है।
'खेलता बच्चा दुनिया का', 'रोता बच्चा माँ का' या पुत्र कुपुत्र हो पर माता कुमाता नहीं होती। जैसी कई सारी कहावतें शायद माँ के निश्छल प्रेम की सराहना में ही कही गई है।
बच्चे माँ के लिए अमूल्य निधि होते हैं जिनकी रक्षा के लिए वह उनके बचपन से लेकर जवानी तक कई रूपों में प्रस्तुत होती है। नन्हे के साथ रात-रात जागना, लोरियाँ सुनाना, उन्हें सजाना सँवारना, खुद भूखे पेट रहकर उन्हें खाना खिलाना, अच्छे संस्कार देना, बच्चों की छोटी-छोटी गलतियों को अपने ममता के आँचल में छुपाना इन सारे कामों के साथ सिर्फ 'माँ' का ही नाम लिया जा सकता है। बचपन में पढ़ी एक मर्मस्पर्शी कहानी याद आती है उस माँ की जिसके बेटे ने जायदाद के लालच में उसको विष दे दिया।
अस्थि विसर्जन के समय जब बेटे को पत्थर की ठोकर लगी, तो माँ की अस्थियाँ पुकार उठी 'बेटा सँभलकर, कहीं चोट न लग जाए।' क्या ऐसा विशालतम हृदय और स्नेहिल सोच माँ के अतिरिक्त किसी की हो सकती है?
मेरी माँ अक्सर कहा करती थी 'जब माँ बनोगी, तभी माँ के हृदय को समझ पाओगी और कितना सत्य था ये कथन क्योंकि रिश्ते की गहराई में उतरे बिना रिश्ते के मर्म को समझ पाना वाकई मुश्किल है। इसलिए शायद मौसी 'माँसी' होती हुए भी 'माँ' नहीं बन पाती और कोई स्त्री पराये बच्चे को अपना नहीं पाती।
कुछ स्त्रियाँ इसका अपवाद भी हैं, फिर भी ममता तो अक्सर कोख जाये पर ही उडेली जाती है।
दुनिया में महानतम व्यक्तियों के उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिन्हें बनाने में उनकी 'माँ' का हाथ रहा है। 'माँ' के संस्कारों की प्रतिमूर्ति बच्चों में दिखाई देती है। इसीलिए ससुराल में बहुओं को ताने दिए जाते हैं कि 'माँ' ने कुछ सिखाया नहीं है अर्थात हर क्षेत्र में संतान के साथ जननी का उल्लेख अवश्यंभावी है। (कभी-कभी यही ममता अंधी होकर बच्चों की गलतियों को बढ़ावा भी देती है, फिर भी निहित उद्देश्य प्रेम व ममता ही रहता है।)
विशेष संदर्भ में जब यही ममता घर की दहलीज लाँघकर समाज या देश के लिए कार्य करने लगती है, तो समाज में 'मदर मैरी', 'मदर टेरेसा' या 'भगिनी निवेदिता' जैसी ममतामयी मूर्तियों का उद्भव होता है, जिनकी स्नेह वर्षा सारे विश्व को एक सूत्र में बाँधते हुए 'विश्व-बंधुत्व' की भावना को बल देती है। सचमुच 'माँ' सिर्फ 'माँ' होती है।
एक कवयित्री के शब्दों में
'माँ, तुम न होकर भी
आज भी यहीं हो मेरे समीप
मेरी स्मृति में, मेरे संस्कारों में
मेरी उपलब्धियों में, मेरे विचारों में
क्योंकि अपने ही रूप में गढ़ा था तुमने,
मुझे अपनी परछाई
अपनी पहचान बनाकर
'माँ तुझे सलाम, शत-शत वंदन
माँ तुझे सलाम .....
प्रकृति का हरेक प्राणी जन्म लेते ही जिस रिश्ते से प्रथम परिचित होता है, वह है माँ-बच्चे का रिश्ता... माँ और बच्चे का संबंध वास्तव में इतना अटूट है कि उसे याद करने या 'सेलीब्रेट' करने के लिए हमें 'मदर्स डे' जैसे किसी दिन को निश्चित करने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए। यह और बात है कि आधुनिकता के रंग में डूबा समाज, जो रिश्तों को भूलने में ही प्रगतिवाद की जीत समझता है, इस बहाने ही अपनी जन्मदात्री को स्मरण कर लेता है।
'माँ' शब्द उत्पति व उच्चारण से ही अपने आप में बेहद स्नेह और आत्मीयता से भरा है। चाहे इसे 'माँ' कहें, आई कहें, 'बा' कहे या 'बीजी'। इसकी मिठास सर्वत्र कायम रहती है। बीज को कोख में धारण करने से लेकर जन्म तक अनगिनत सपने सजाती माँ, नन्हे शिशु को दूध पिलाती, उसकी हर गतिविधि पर उत्साहित होती माँ, उसे किस्से-कहानियों से लेकर जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराती माँ...
माँ सिर्फ माँ ही रहती है और माँ ही होती है, जिसकी हर धड़कन सिर्फ बच्चों के लिए न्योछावर होती है।
'खेलता बच्चा दुनिया का', 'रोता बच्चा माँ का' या पुत्र कुपुत्र हो पर माता कुमाता नहीं होती। जैसी कई सारी कहावतें शायद माँ के निश्छल प्रेम की सराहना में ही कही गई है।
बच्चे माँ के लिए अमूल्य निधि होते हैं जिनकी रक्षा के लिए वह उनके बचपन से लेकर जवानी तक कई रूपों में प्रस्तुत होती है। नन्हे के साथ रात-रात जागना, लोरियाँ सुनाना, उन्हें सजाना सँवारना, खुद भूखे पेट रहकर उन्हें खाना खिलाना, अच्छे संस्कार देना, बच्चों की छोटी-छोटी गलतियों को अपने ममता के आँचल में छुपाना इन सारे कामों के साथ सिर्फ 'माँ' का ही नाम लिया जा सकता है। बचपन में पढ़ी एक मर्मस्पर्शी कहानी याद आती है उस माँ की जिसके बेटे ने जायदाद के लालच में उसको विष दे दिया।
अस्थि विसर्जन के समय जब बेटे को पत्थर की ठोकर लगी, तो माँ की अस्थियाँ पुकार उठी 'बेटा सँभलकर, कहीं चोट न लग जाए।' क्या ऐसा विशालतम हृदय और स्नेहिल सोच माँ के अतिरिक्त किसी की हो सकती है?
मेरी माँ अक्सर कहा करती थी 'जब माँ बनोगी, तभी माँ के हृदय को समझ पाओगी और कितना सत्य था ये कथन क्योंकि रिश्ते की गहराई में उतरे बिना रिश्ते के मर्म को समझ पाना वाकई मुश्किल है। इसलिए शायद मौसी 'माँसी' होती हुए भी 'माँ' नहीं बन पाती और कोई स्त्री पराये बच्चे को अपना नहीं पाती।
कुछ स्त्रियाँ इसका अपवाद भी हैं, फिर भी ममता तो अक्सर कोख जाये पर ही उडेली जाती है।
दुनिया में महानतम व्यक्तियों के उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिन्हें बनाने में उनकी 'माँ' का हाथ रहा है। 'माँ' के संस्कारों की प्रतिमूर्ति बच्चों में दिखाई देती है। इसीलिए ससुराल में बहुओं को ताने दिए जाते हैं कि 'माँ' ने कुछ सिखाया नहीं है अर्थात हर क्षेत्र में संतान के साथ जननी का उल्लेख अवश्यंभावी है। (कभी-कभी यही ममता अंधी होकर बच्चों की गलतियों को बढ़ावा भी देती है, फिर भी निहित उद्देश्य प्रेम व ममता ही रहता है।)
विशेष संदर्भ में जब यही ममता घर की दहलीज लाँघकर समाज या देश के लिए कार्य करने लगती है, तो समाज में 'मदर मैरी', 'मदर टेरेसा' या 'भगिनी निवेदिता' जैसी ममतामयी मूर्तियों का उद्भव होता है, जिनकी स्नेह वर्षा सारे विश्व को एक सूत्र में बाँधते हुए 'विश्व-बंधुत्व' की भावना को बल देती है। सचमुच 'माँ' सिर्फ 'माँ' होती है।
एक कवयित्री के शब्दों में
'माँ, तुम न होकर भी
आज भी यहीं हो मेरे समीप
मेरी स्मृति में, मेरे संस्कारों में
मेरी उपलब्धियों में, मेरे विचारों में
क्योंकि अपने ही रूप में गढ़ा था तुमने,
मुझे अपनी परछाई
अपनी पहचान बनाकर
'माँ तुझे सलाम, शत-शत वंदन
Wednesday, April 28, 2010
माँ तो बस माँ होती है
माँ तो बस माँ होती है
बच्चों को भरपेट खिलाती
खुद भूखी ही सोती है
माँ तो बस माँ ही होती है।।
बच्चों की चंचल अठखेली
देख-देख खुश होती है
बचपन के हर सुंदर पल को
बना याद संजोती है
माँ तो बस माँ ही होती है।।
देख तरक्की बच्चों की वो
आस के मोती पोती है
बच्चों की खुशहाली में वो
अपना जीवन खोती है
माँ तो बस माँ होती है।।
बच्चों की बदली नजरों से
नहीं शिकायत होती है
जब जब झुकता सिर होठों पर
कोई दुआ ही होती है
माँ तो बस माँ ही होती है।
माँ तो बस माँ होती है
बच्चों को भरपेट खिलाती
खुद भूखी ही सोती है
माँ तो बस माँ ही होती है।।
बच्चों की चंचल अठखेली
देख-देख खुश होती है
बचपन के हर सुंदर पल को
बना याद संजोती है
माँ तो बस माँ ही होती है।।
देख तरक्की बच्चों की वो
आस के मोती पोती है
बच्चों की खुशहाली में वो
अपना जीवन खोती है
माँ तो बस माँ होती है।।
बच्चों की बदली नजरों से
नहीं शिकायत होती है
जब जब झुकता सिर होठों पर
कोई दुआ ही होती है
माँ तो बस माँ ही होती है।
Tuesday, April 27, 2010
ND
चिकनी, समतल या कटी-फटी,
कभी छोटी या लंबी दौड़ती सी।
हर रोज मैं इन्हें गौर से देखा करती हूँ,
जब मिल जाती है अचानक सफलता,
तो इन लकीरों में एक,
नई लकीर खोज लेती हूँ,
कि भाग्य साथ दे रहा है।
जब प्रयत्नों के बाद भी,
असफलता ही हाथ आती है,
तो एकाध कटी-फटी रेखा को देख,
बनाती हूँ पॉजिटीव एटीट्यूड,
कि किस्मत ही खराब है !
Monday, April 26, 2010
Friday, April 23, 2010
ये क्या कह दिया आपने!
ND
NDअक्सर हम अपनी वाचालता के चलते कई बार ऐसी बातें बोल जाते हैं, जो भले ही सही हों, पर अवसर के अनुरूप नहीं होती। ऐसे में सामने वाले के अहं पर चोट लगती है और जबान के इस वार को वह ताउम्र याद रखता है।
श्रावी अपनी सहेली के साथ एक मीटिंग में गई। वहाँ विविध प्रोफेशन्स पर चर्चा चली। ब्यूटी पार्लर चलाने की बात आते ही श्रावी नाक-भौं सिकोड़कर बोली, 'ये भी क्या काम है... पैसों के चक्कर में दूसरों के हाथ-पाँव मलो, मैल साफ करो...' श्रावी तो अपनी रौ में बोल गई, मगर उसे ये ध्यान ही न रहा कि मीटिंग को "होस्ट" करने वाली महिला स्वयं ब्यूटी पार्लर चलाती है। उसने श्रावी की सहेली को तो आड़े हाथों लिया ही, श्रावी को इस समूह की सदस्यता भी नहीं लेने दी।
कई बार दफ्तर में भी एक समूह किसी व्यक्ति को या अन्य समूह को लक्ष्य बनाकर फिकरे उछालता रहता है... तानाकशी होती रहती है। भले ही इसे 'जस्ट किडिंग' का नाम दे दिया जाए, मगर यदि यह 'किडिंग' किसी व्यक्ति विशेष की जीवनशैली, बोली या शारीरिक संरचना पर व्यंग्य के बतौर की जा रही हो तो क्या वह व्यक्ति इसे सहन कर सकेगा?
मेघा एक दक्ष गृहिणी है। एक बार भोजन पर पधारे किसी दंपति के सामने सुदीप ने मजाक में कहा, "मैं तो इनका दास हूँ। तला-भुना, जला-कटा जो खिलाती है, खा लेता हूँ।" मेघा पर घड़ों पानी पड़ गया था। सुदीप के लिए वह दिन-रात खटती थी और उसने दूसरों के सामने... इस घटना के बाद कई दिन उनमें बातचीत बंद रही। जब आप गुस्से में होते हैं तब तो जबान को सुनहरा मौका मिल जाता है फिसलने का... आप सामने वाले की धज्जियाँ उड़ाते जाते है... उसके इतिहास-भूगोल एक कर डालते हैं और उससे अपेक्षा करते हैं कि आपके शांत होने पर वह आपको समझे, आपसे उसी सहृदयता से पेश आए... खासकर पति-पत्नी के बीच तो यह दृश्य आम है, मगर क्या सामने वाला व्यक्ति इतनी जली-कटी सुनने के बाद सहज हो पाएगा?
वास्तव में हर झगड़े की जड़ ये जबान ही है। यदि इसमें मिठास घुली रहे, बोल संतुलित और सभ्य हो तो कभी किसी झगड़े की नौबत ही न आए। इसीलिए दूसरों पर नियंत्रण से पहले स्व-नियंत्रण का फार्मूला अपनाएँ, जबान को काबू में करें। करना सिर्फ इतना है कि 'बोलने से पहले सोचें और गुस्सा आने पर मौन व्रत ले लें।'ये क्या कह दिया आपने!
Thursday, April 22, 2010
ND
आप किसी के घर जाते हैं और चंद मिनट वहाँ बैठने पर आपको घबराहट-सी महसूस होने लगती है। ऐसे समय आपको लगता है कि आपकी तबीयत गड़बड़ा रही है मगर यह आपका नहीं उस घर की तरंगों का दोष होता है। हमारी कुंडली के ग्रहों की तरह प्रत्येक घर में भी अच्छे-बुरे ग्रहों का प्रभाव झलकता है।
यदि किसी घर में छोटी-बड़ी बातों पर विवाद उठ खड़ा होता है, बच्चे बड़ों का अपमान करते हों, मन में भारीपन-सा रहे, छोटी-बड़ी बातें भी बड़े-बड़े विवादों का रूप ले लेती हों, बच्चों व बड़ों का 'परफार्मेंस' उनकी क्षमतानुसार न हो पाए तो ऐसे घरों में अकसर शनि व राहु की नकारात्मक तरंगों का प्रभाव होता है।
ND
1. घर के माहौल को शांतिमय रखें।
2. घर में हमेशा खुशबू (चंदन-कपूर) का प्रयोग करें।
3. घर के अंदर व बाहर तुलसी तथा मौसमी फूलों के पेड़ लगाएँ।
4. सुबह-शाम सामूहिक पूजा व आरती जरूर करें।
5. घर में लोहे के फर्नीचर, वस्तुओं का उपयोग न करें।
6. पढ़ते समय पानी की कटोरी सामने भरकर रखें।
7. राई-लौंग-राजमा-उड़द का प्रयोग कम करें।
8. रबर का इस्तेमाल कम करें।
9. महीने में एक या दो बार उपवास रखें व दान करें।
10. मछलियों की सेवा करें।
Wednesday, April 21, 2010
गुरु पुष्य नक्षत्र और मूलांक :
गुरु पुष्य नक्षत्र का महत्व शास्त्रों में सबसे अधिक है और इस बार अधिक मास में आने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ गया है. यह नक्षत्र दि.२१ अप्रैल को सुबह ६ बजे से दोपहर ३ बजे तक रहेगा. इस समय में किया गया दान और पुण्य कई गुना अधिक फल देता है. आइए देखे विभिन्न मूलांक वाले लोगों को इस क्या खरीदना चाहिए और क्या दान करना चाहिए.विशेषकर तब जब हमारे युवा इस दिन किसी परीक्षा या इंटरव्यू के लिए जाना चाहते हो.
* मूलांक १ : सूर्य का अंक है. सूर्य अभी मेष में उच्च के है. अतः ये जातक सफ़ेद और नारंगी वस्त्र पहने, इन्हीं रंगों की वस्तुओं का दान करे और माणिक रत्न पहने.
* मूलांक २ : यह चन्द्र का अंक है. चन्द्र इस दिन कर्क के है. अतः ये जातक सफ़ेद वस्त्र पहने, चावल का और दूध का दान करे और मोती रत्न धारण करे.
*मूलांक ३ : यह गुरु का अंक है. गुरु अभी कुम्भ में है अतः इन जातकों को पुखराज या सुनहला धारण करना चाहिए, हलके पीले वस्त्र पहने और चने की दाल और गुड का दान करना चाहिए.
मूलांक ४ : यह राहू का अंक है. राहू अभी धनु में मैं है अतः इन जातकों को गहरे रंग के वस्त्रों से बचना चाहिए, गहरे नीले वस्त्र का दान करना चाहिए और राहू की जडी धारण करना चाहिए.
* मूलांक ५ : यह बुध का अंक है और बुध अभी सूर्य के साथ है अथाह इन जातकों को हरे वस्त्र धारण करना चाहिए, गाय को चारा खिलाना चाहिए और पन्ना पहनने के लिए भी यह दिन शुभ है .
* मूलांक ६ : यह शुक्र का अंक है. शुक्र अभी अपनी राशि वृषभ में है अतः इन जाताकों को सफ़ेद वस्त्र पहनने चाहिए, साबूदाने का दान करना चाहिए और हीरा या जर्किन धारण करना चाहिए.
* मूलांक ७ : यह केतु का अंक है. केतु अभी मिथुन में है. सलेटी और काले वस्त्र न पहने, हलके रंगों का प्रयोग करे.केतु की जडी धारण करे और कुत्ते को मीठी रोटी खिलाए.
* मूलांक ८ : यह शनि का अंक है. शनि अभी कन्या में है अतः इन जातकों को गहरे रंगों से बचना चाहिए, काली वस्तुओं का व तेल का दान करना चाहिए. नौकरों को कुछ खाद्य सामग्री दान दे.
* मूलांक ९ : यह मंगल का अंक है. मंगल अभी कर्क में नीच के है. अतः इन जातकों को लाल रंग का प्रयोग करना चाहिए, मूंगा पहन सकते हैं और चुकंदर ,मसूर की दाल का दान करे. रक्त दान भी बेहतर उपाय है.
विशेष : अपने मूलांक के अनुसार इष्ट का ध्यान करना और दान करना सफलता के प्रतिशत को निश्चित ही बढ़ाएगा .
भारती पंडित
इंदौर
मित्रता ,ग्रह और ज्योतिष
रेखा परेशान है कि उसकी किसी से फ्रेंडशिप नहीं होती ,तो अंशु अपनी आसपास फ्रेंड्स की भीड़ से परेशान है. जय को लगता है कि उसके फ्रेंड्स उसके लिए लकी है तो नीरव को लगता है कि फ्रेंड्स की वजह से उसके काम खराब होते है. आखिर एक शब्द है फ्रेंडशिप और इतने सारे कमेंट्स?
वास्तव में आपके कितने फ्रेंड्स होंगे और आपकी उनसे कितनी बनेगी यह आपके प्लेनेट्स पर डिपेण्ड करता है. उन्ही के अनुसार आपके रिलेशन बनते और बिगड़ते हैं.
* यदि होरोस्कोप में जुपिटर, मरकरी और मून सही स्थिति में है तो आपके आसपास फ्रेंड्स का जमघट लगा रहेगा. ऐसे लोग बड़ी जलदी दोस्ती करते है.
* यदि शुक्र या बुध का लग्न है तो भी दोस्त जल्दी बनाते है. मगर सोच समझकर दोस्ती करते हैं.
* यदि गुरु ,सूर्य का लग्न है तो दोस्त कम बनाते है.
* यदि मंगल ,शनि का लग्न है तो हर किसी से दोस्ती हो जाती है जो नुकसान भी देती है.
* यदि लग्न में गुरु या सूर्य हो तो ये व्यक्ति समाज में आदर तो पाते है मगर ग्रहों के विशेष स्वभाव के कारण रेलेशन मेंटेन नहीं कर पाते. स्वाभिमान की अधिकता इन्हें किसी के आगे झुकाने नहीं देती और गहरी मित्रता से दूर रहते है.
* कमजोर मून, जुपिटर या मरकरी के कारण दोस्त बनते ही नहीं hei. लोग आपको पसंद ही नहीं करते.
* यदि सेकंड हाउस में मार्स या शनि हो तो व्यक्ति दोस्तों के कारण परिवार को भी दांव पर लगा सकता है मगर उसे दोस्तों से नुकसान ही होता है.
* यदि सेकंड हाउस में शुभ ग्रह हो तो दोस्तों से लाभ होता है.
* यदि फिफ्थ और एलेवंथ हाउस आपस में रिलेशन रखे या इनके स्वामी अपने भाव या एक-दूसरों को देखे तो दोस्तों से बहुत लाभ होता है और प्रोफेशनल फील्ड में लाभ मिलता है.
* यदि शुक्र का लग्न हो और शुक्र शनि से प्रभावित हो तो दोस्तों के कारण नशे की ,बुरी आदतों में पड़ने से नुकसान ही होता है.
अतः अपने ग्रहों को देखे और सोच- समझकर दोस्ती करें.
विशेष : हाथ में पीला धागा बांधने से, हलके पीले वस्त्र पहनने से और केवडा या चन्दन का इत्र लगाने से दोस्त जल्दी बनते हैं .
भारती पंडित
इंदौर
गुरु पुष्य नक्षत्र का महत्व शास्त्रों में सबसे अधिक है और इस बार अधिक मास में आने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ गया है. यह नक्षत्र दि.२१ अप्रैल को सुबह ६ बजे से दोपहर ३ बजे तक रहेगा. इस समय में किया गया दान और पुण्य कई गुना अधिक फल देता है. आइए देखे विभिन्न मूलांक वाले लोगों को इस क्या खरीदना चाहिए और क्या दान करना चाहिए.विशेषकर तब जब हमारे युवा इस दिन किसी परीक्षा या इंटरव्यू के लिए जाना चाहते हो.
* मूलांक १ : सूर्य का अंक है. सूर्य अभी मेष में उच्च के है. अतः ये जातक सफ़ेद और नारंगी वस्त्र पहने, इन्हीं रंगों की वस्तुओं का दान करे और माणिक रत्न पहने.
* मूलांक २ : यह चन्द्र का अंक है. चन्द्र इस दिन कर्क के है. अतः ये जातक सफ़ेद वस्त्र पहने, चावल का और दूध का दान करे और मोती रत्न धारण करे.
*मूलांक ३ : यह गुरु का अंक है. गुरु अभी कुम्भ में है अतः इन जातकों को पुखराज या सुनहला धारण करना चाहिए, हलके पीले वस्त्र पहने और चने की दाल और गुड का दान करना चाहिए.
मूलांक ४ : यह राहू का अंक है. राहू अभी धनु में मैं है अतः इन जातकों को गहरे रंग के वस्त्रों से बचना चाहिए, गहरे नीले वस्त्र का दान करना चाहिए और राहू की जडी धारण करना चाहिए.
* मूलांक ५ : यह बुध का अंक है और बुध अभी सूर्य के साथ है अथाह इन जातकों को हरे वस्त्र धारण करना चाहिए, गाय को चारा खिलाना चाहिए और पन्ना पहनने के लिए भी यह दिन शुभ है .
* मूलांक ६ : यह शुक्र का अंक है. शुक्र अभी अपनी राशि वृषभ में है अतः इन जाताकों को सफ़ेद वस्त्र पहनने चाहिए, साबूदाने का दान करना चाहिए और हीरा या जर्किन धारण करना चाहिए.
* मूलांक ७ : यह केतु का अंक है. केतु अभी मिथुन में है. सलेटी और काले वस्त्र न पहने, हलके रंगों का प्रयोग करे.केतु की जडी धारण करे और कुत्ते को मीठी रोटी खिलाए.
* मूलांक ८ : यह शनि का अंक है. शनि अभी कन्या में है अतः इन जातकों को गहरे रंगों से बचना चाहिए, काली वस्तुओं का व तेल का दान करना चाहिए. नौकरों को कुछ खाद्य सामग्री दान दे.
* मूलांक ९ : यह मंगल का अंक है. मंगल अभी कर्क में नीच के है. अतः इन जातकों को लाल रंग का प्रयोग करना चाहिए, मूंगा पहन सकते हैं और चुकंदर ,मसूर की दाल का दान करे. रक्त दान भी बेहतर उपाय है.
विशेष : अपने मूलांक के अनुसार इष्ट का ध्यान करना और दान करना सफलता के प्रतिशत को निश्चित ही बढ़ाएगा .
भारती पंडित
इंदौर
रेखा परेशान है कि उसकी किसी से फ्रेंडशिप नहीं होती ,तो अंशु अपनी आसपास फ्रेंड्स की भीड़ से परेशान है. जय को लगता है कि उसके फ्रेंड्स उसके लिए लकी है तो नीरव को लगता है कि फ्रेंड्स की वजह से उसके काम खराब होते है. आखिर एक शब्द है फ्रेंडशिप और इतने सारे कमेंट्स?
वास्तव में आपके कितने फ्रेंड्स होंगे और आपकी उनसे कितनी बनेगी यह आपके प्लेनेट्स पर डिपेण्ड करता है. उन्ही के अनुसार आपके रिलेशन बनते और बिगड़ते हैं.
* यदि होरोस्कोप में जुपिटर, मरकरी और मून सही स्थिति में है तो आपके आसपास फ्रेंड्स का जमघट लगा रहेगा. ऐसे लोग बड़ी जलदी दोस्ती करते है.
* यदि शुक्र या बुध का लग्न है तो भी दोस्त जल्दी बनाते है. मगर सोच समझकर दोस्ती करते हैं.
* यदि गुरु ,सूर्य का लग्न है तो दोस्त कम बनाते है.
* यदि मंगल ,शनि का लग्न है तो हर किसी से दोस्ती हो जाती है जो नुकसान भी देती है.
* यदि लग्न में गुरु या सूर्य हो तो ये व्यक्ति समाज में आदर तो पाते है मगर ग्रहों के विशेष स्वभाव के कारण रेलेशन मेंटेन नहीं कर पाते. स्वाभिमान की अधिकता इन्हें किसी के आगे झुकाने नहीं देती और गहरी मित्रता से दूर रहते है.
* कमजोर मून, जुपिटर या मरकरी के कारण दोस्त बनते ही नहीं hei. लोग आपको पसंद ही नहीं करते.
* यदि सेकंड हाउस में मार्स या शनि हो तो व्यक्ति दोस्तों के कारण परिवार को भी दांव पर लगा सकता है मगर उसे दोस्तों से नुकसान ही होता है.
* यदि सेकंड हाउस में शुभ ग्रह हो तो दोस्तों से लाभ होता है.
* यदि फिफ्थ और एलेवंथ हाउस आपस में रिलेशन रखे या इनके स्वामी अपने भाव या एक-दूसरों को देखे तो दोस्तों से बहुत लाभ होता है और प्रोफेशनल फील्ड में लाभ मिलता है.
* यदि शुक्र का लग्न हो और शुक्र शनि से प्रभावित हो तो दोस्तों के कारण नशे की ,बुरी आदतों में पड़ने से नुकसान ही होता है.
अतः अपने ग्रहों को देखे और सोच- समझकर दोस्ती करें.
विशेष : हाथ में पीला धागा बांधने से, हलके पीले वस्त्र पहनने से और केवडा या चन्दन का इत्र लगाने से दोस्त जल्दी बनते हैं .
भारती पंडित
इंदौर
Tuesday, April 20, 2010
ND
व्यक्ति का स्वभाव व पर्सनेलिटी पूरी तरह से उसके हॉरोस्कोप में प्लेनेट की स्थिति पर डिपेंड करती है। ये योग होने पर व्यक्ति हर बात को 'लाइटली' लेते हैं, जीवन भर 'लाइवली' बने रहते हैं।
* बुध प्रधान लग्न के व्यक्ति अक्सर मस्तमौला होते हैं।
* बुध-मंगल एक साथ हों, शनि की राशि में हो तो व्यक्ति हँसमुख होता है।
* बुध-बृहस्पति परस्पर सातवें हो या बृहस्पति बुध को देखता हो तो व्यक्ति खुशमिजाज होता है।
* हॉरोस्कोप में मंगल प्रबल हो तो व्यक्ति बिना डरे साहस से स्थिति का सामना करता है।
* बुध-शुक्र साथ हो तो व्यक्ति लच्छेदार रसभरी बातें करता है।
* लग्न का बृहस्पति भी स्वभाव को अच्छा, आशावादी व खुश बनाता है।
यदि आपकी कुंडली में ये योग हैं तो बढ़िया... यदि न हो तो-
ND
* चंद्रमा कमजोर हो तो रोनी सूरत रहेगी।
* शनि का लग्न हो तो दूसरों में गलतियाँ ढूँढते रहेंगे।
* केतु ठीक न हो तो उदासीन वृत्ति रहेगी।
* ऐसे में आप समूह में पसंद नहीं किए जा सकते। अत: आपको बुध-मंगल-बृहस्पति की मजबूती के और पाप ग्रहों की शांति के उपाय करना चाहिए।
Monday, April 19, 2010
Saturday, April 17, 2010
गरीब की लडकी
गरीब की लडकी
नहीं सोती है पूरी नींद ,करती माँ की हिदायत का पालन
कि नींद में न आ जाए कोई सपना सलोना ,
जिसे पाने को मचल पड़े मन की नदी ,
अपने प्रवाह को अनियंत्रित करके .
गरीब की लडकी
जानती है सीमाएं अपनी , कि
अव्वल तो कोख में ही मार दी जाएगी,
जी गई तो अनचाही सी दुलार दी जाएगी,
पढ़ना चाहेगी तो ब्याह दी जाएगी ,
बोझ सी दूजे आँगन उतार दी जाएगी।
गरीब की लडकी
फिर भी झपका ही लेती है उनींदी पलकें,
देखने को कोई सपन सलोना ,
क्योंकि बचपन में दादी की कहानी में सुना था कि
सपने भी कभी-कभी सच हुआ करते हैं।
गरीब की लडकी
नहीं सोती है पूरी नींद ,करती माँ की हिदायत का पालन
कि नींद में न आ जाए कोई सपना सलोना ,
जिसे पाने को मचल पड़े मन की नदी ,
अपने प्रवाह को अनियंत्रित करके .
गरीब की लडकी
जानती है सीमाएं अपनी , कि
अव्वल तो कोख में ही मार दी जाएगी,
जी गई तो अनचाही सी दुलार दी जाएगी,
पढ़ना चाहेगी तो ब्याह दी जाएगी ,
बोझ सी दूजे आँगन उतार दी जाएगी।
गरीब की लडकी
फिर भी झपका ही लेती है उनींदी पलकें,
देखने को कोई सपन सलोना ,
क्योंकि बचपन में दादी की कहानी में सुना था कि
सपने भी कभी-कभी सच हुआ करते हैं।
वाह रे अधिकारी
गरमी का पारा जैसे ही ऊंचा चढ़ा ,शिक्षा विभाग के अधिकारियों को स्कूल के बच्चों की सुध आई. झटपट स्कूल बंद करने का फरमान तो निकाल दिया गया मगर यहाँ भी झोल. आदेश दिया गया कि सारे सरकारी स्कूल तो तुरंत बंद कर दिए जाए , हाँ किसी भी निजी और सी. बी .एस. सी. स्कूल पर यह निर्णय मानने की बाध्यता नहीं है. तर्क यह दिया गया कि सरकारी स्कूलों में आधारभूत सुविधाओं के अभाव के रहते बच्चों के बीमार होने की आशंका ज्यादा है. अब ज़रा इन अधिकारियों से कोई यह पूछे कि क्या गरमी बच्चे पर प्रहार करने से पहले यह पूछेगी कि बेटा, सरकारी में पढ़ते हो या निजी में?
यूं भी सरकारी स्कूल केवल एक शिफ्ट के समय में यानी कुल चार घंटे लगते हैं जबकि सभी निजी स्कूलों का कम से कम समय ५ या ६ घंटे हैं. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ज्यादातर आसपास के इलाकों के ही होते हैं जबकि निजी स्कूलों में बच्चे (किसी सही नीती के अभाव में) १० से १५ कि. मी. की दूरी का सफ़र तय करके भी आते हैं . और यह सफ़र किसी वातानुकूलित गाडी में नहीं वरन तपती बस में तय किया जाता है. क्या उनके बीमार होने की आशंका नहीं होगी? निजी स्कूलों में नर्सरी, के.जी. की कक्षाएं भी चलती है और ये नन्हें-मुन्ने तपती-जलती गरमी में स्कूल जाने पर विवश हैं क्योंकि सिलेबस का पहाड़ खडा है. क्या इन्हें गरमी प्रभावित नहीं करती ? सरकारी स्कूलों में न तो बच्चों को नियमित उपस्थित रहने पर दबाव बनाया जाता है और न ही शिक्षा का स्तर ऐसा होता है कि उनके न जाने से विशेष नुकसान होता हो.
यह लिखते हुए क्षमा चाहूंगी मगर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने साधारण जीवन स्तर के चलते हर प्रतिकूलता (गरमी की भयंकरता भी) के आदी होते है मगर निजी स्कूलों के छात्र सुविधाओं के चलते परेशानी महसूस कर सकते हैं. जो बातें साधारण व्यक्ति सोच सकता है, वो अधिकारी न सोच पाए ऐसा हो नहीं सकता मगर वास्तविक कसरत है इन बेलगाम निजी स्कूलों पर दबाव बनाना , जिसमें सभी स्वयं को असमर्थ पाते हैं और इसके चलते हर आदेश केवल सरकारी स्कूल पर लागू कर छुट्टी पा लेते हैं क्योंकि हर निजी स्कूल के पीछे किसी रसूखदार का नाम जुड़ा है जिसे छेड़ने में अधिकारी भी डरते है. इसी के चलते इन स्कूलों में सरकार के आदेशों ( विशेषकर अवकाशों का ) की जमकर अवहेलना की जाती है और प्रशासन चुप रहता है. मगर गरमी का मुद्दा सारे बच्चों के लिए एक जैसा है अतः इसे स्कूल विशेष का मामला न बनाकर हर स्कूल पर लागू करना चाहिए.
भारती पंडित
इंदौर
गरमी का पारा जैसे ही ऊंचा चढ़ा ,शिक्षा विभाग के अधिकारियों को स्कूल के बच्चों की सुध आई. झटपट स्कूल बंद करने का फरमान तो निकाल दिया गया मगर यहाँ भी झोल. आदेश दिया गया कि सारे सरकारी स्कूल तो तुरंत बंद कर दिए जाए , हाँ किसी भी निजी और सी. बी .एस. सी. स्कूल पर यह निर्णय मानने की बाध्यता नहीं है. तर्क यह दिया गया कि सरकारी स्कूलों में आधारभूत सुविधाओं के अभाव के रहते बच्चों के बीमार होने की आशंका ज्यादा है. अब ज़रा इन अधिकारियों से कोई यह पूछे कि क्या गरमी बच्चे पर प्रहार करने से पहले यह पूछेगी कि बेटा, सरकारी में पढ़ते हो या निजी में?
यूं भी सरकारी स्कूल केवल एक शिफ्ट के समय में यानी कुल चार घंटे लगते हैं जबकि सभी निजी स्कूलों का कम से कम समय ५ या ६ घंटे हैं. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ज्यादातर आसपास के इलाकों के ही होते हैं जबकि निजी स्कूलों में बच्चे (किसी सही नीती के अभाव में) १० से १५ कि. मी. की दूरी का सफ़र तय करके भी आते हैं . और यह सफ़र किसी वातानुकूलित गाडी में नहीं वरन तपती बस में तय किया जाता है. क्या उनके बीमार होने की आशंका नहीं होगी? निजी स्कूलों में नर्सरी, के.जी. की कक्षाएं भी चलती है और ये नन्हें-मुन्ने तपती-जलती गरमी में स्कूल जाने पर विवश हैं क्योंकि सिलेबस का पहाड़ खडा है. क्या इन्हें गरमी प्रभावित नहीं करती ? सरकारी स्कूलों में न तो बच्चों को नियमित उपस्थित रहने पर दबाव बनाया जाता है और न ही शिक्षा का स्तर ऐसा होता है कि उनके न जाने से विशेष नुकसान होता हो.
यह लिखते हुए क्षमा चाहूंगी मगर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने साधारण जीवन स्तर के चलते हर प्रतिकूलता (गरमी की भयंकरता भी) के आदी होते है मगर निजी स्कूलों के छात्र सुविधाओं के चलते परेशानी महसूस कर सकते हैं. जो बातें साधारण व्यक्ति सोच सकता है, वो अधिकारी न सोच पाए ऐसा हो नहीं सकता मगर वास्तविक कसरत है इन बेलगाम निजी स्कूलों पर दबाव बनाना , जिसमें सभी स्वयं को असमर्थ पाते हैं और इसके चलते हर आदेश केवल सरकारी स्कूल पर लागू कर छुट्टी पा लेते हैं क्योंकि हर निजी स्कूल के पीछे किसी रसूखदार का नाम जुड़ा है जिसे छेड़ने में अधिकारी भी डरते है. इसी के चलते इन स्कूलों में सरकार के आदेशों ( विशेषकर अवकाशों का ) की जमकर अवहेलना की जाती है और प्रशासन चुप रहता है. मगर गरमी का मुद्दा सारे बच्चों के लिए एक जैसा है अतः इसे स्कूल विशेष का मामला न बनाकर हर स्कूल पर लागू करना चाहिए.
भारती पंडित
इंदौर
Thursday, April 15, 2010
Thursday, April 8, 2010
तस्वीर का एक पहलू यह भी
सरकार द्वारा आजकल शिक्षा के समान अधिकार की बात बड़े जोर-शोर से की जा रही है. गरीबी की रेखा में आने वाले बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलाने ,उन्हें आरक्षण दिलवाने और शिक्षा के अच्छे अवसर दिलवाने की बात कही जा रही है. यानी यह सब कहकर सरकार स्वयं स्वीकार कर रही है कि निजी स्कूल शिक्षा के मामले में सरकारी स्कूलों से कहीं बेहतर है . जब ऐसा ही है तो शिक्षा के नाम पर इतना तमाशा खड़ा करने की ,इतना पैसा खर्च करने की जरूरत ही क्या है? क्यों न शिक्षा के क्षेत्र को पूरी तरह से निजी हाथों में ही दे दिया जाए? यूं भी अस्पष्ट नीतियों के चलते भारी-भरकम फीस वाले स्कूल निरंतर फलते-फूलते नजर आ ही रहे हैं, उच्च वर्ग के लिए तो सब आसान है, मध्यम वर्ग मर-गिरकर अपना पेट काटकर अपने बच्चों को निजी संस्थाओं में पढ़ा ही रहा है. अब रह गयी बात गरीबों की ,तो उन्हें इन स्कूलों में अच्छी शिक्षा दिलाने का वादा सरकार कर ही रही है.
अब ज़रा गरीब बच्चों के निजी स्कूलों में दाखिले के समय बनने वाली स्थिति पर नजर दाल ली जाए. यह कैसे तय किया जाएगा कि बच्चा वास्तव में गरीब है? क्योंकि लालच के चलते और भ्रष्टाचार की कृपा से कई संपन्न लोग भी नकली प्रमाण बनवाकर ऐसी कतार में शामिल होते देखे जा सकते है. हमारे शहर में ही जो स्कूल कुछ गरीब होनहार बच्चों की मुफ्त शिक्षा के लिए परीक्षा आयोजित करते हैं उनमें यह तमाशा खुले आम देखा जा सकता है. क्या पैसे के बल पर अधिकार हनन का यह खेल यहाँ भी खेला नहीं जाएगा ?
चलिए यदि येन-केन प्रकारेण स्कूल में दाखिला हो भी गया तो आगे...... ये निजी स्कूल केवल भारी - भरकम फीस के लिए ही नहीं जाने जाते,वरन यहाँ पढ़ने वाले बच्चों में यह अहसास कूट-कूटकर भरा होता है कि अपने पुराने पुण्यों के कारण उन्हें अमीर घरों में जन्म मिला है और अपने पालकों के दम पर वे दिखावे की हर होड़ में शामिल हो प्रथम आना चाहते हैं. यहाँ पढ़ने वाले बच्चों का स्तर उनकी बुद्धिमानी से नहीं ,वरन उनके कपड़ों, जूतों और बस्तों की कीमत से आंका जाता है. ब्रांड्स की इस अंधी दौड़ में उस बेचारे बच्चे का क्या हाल होगा जिस बेचारे को तन ढंकने को कपड़ा मिले तो वह भाग्य समझ ले? वे मध्यम वर्गीय बच्चे, जो या तो माता -पिता की महत्वाकांक्षाओं के चलते इन स्कूलों में दाखिल होते हैं या उनके माता-पिता उन स्कूलों में काम करते हैं अतः घटी दरों पर दाखिला मिलने के कारण वे यहाँ पढ़ते हैं,उनकी मानसिक स्थिति कितनी शोचनीय हो जाती है, इसका अंदाज हम नहीं लगा सकते. हर रोज अपनी कमतरी का अहसास न केवल उन्हें " जीवन में पैसा ही
सर्वोपरीहै "का गणित समझाता है वरन येन केन प्रकारेण इसे हासिल करना ही है ,यह भी सिखा देता है. ऐसे में बच्चे भाग्य को दोष देना ,वास्तविकता से दूर भागना और झूठा स्टेटस दिखाना सीख जाते है. यदि तेज-तर्रार हुए तो गलत राह पर निकल जाते हैं, सीधे-भोले हुए तो डिप्रेशन के शिकार हो जाते है. इन बच्चों के माता-पिता कम से कम इतने जानकार तो होते है कि बच्चों को समझाइश दे सकें, उनकी काउंसिलिंग कर सकें,मगर उन गरीब बच्चों का क्या होगा, जिनके माता-पिता न तो ये सब जानते हैं,न समझते है. क्या मोरों की टोली में आ धमके काले कौवे को ये सफ़ेद मोर जीने देंगे?
और फिर बात केवल शिक्षण शुल्क की नहीं है. बस, गणवेश,खाना, ट्रिप, कैंप ,प्रोजेक्ट...ढेरों खर्च होते हैं जो सुरसा की तरह मुंह फाड़े खड़े रहेंगे और उनसे बचने के लिए हर बच्चे को हनुमान जी की तरह कवायद करनी होगी.ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय ही बताएगा मगर देखने-सुनाने में यह सब जितना लुभावना लग रहा है, इसकी वास्तविकता भयावह भी हो सकती है ,यह ध्यान में रखना चाहिए.
भारती पंडित
३०१, स्वर्ण प्लाज़ा
स्कीम ११४-१
ए.बी. रोड
इंदौर
9926099019
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Sunday, April 4, 2010
ND
एक दिन बेटी को कहा, बेटा मुझे दो 'एनव्हलप' ला देना बेटी चौंकी, मम्मा फिर प्रोनाउंस करो तो.. मैंने जोर देकर कहा 'एनव्हलप' ला देना.. बिटिया हँसकर बोली, मम्मा, नई अँगरेजी सीखो - एनव्हलप नहीं, 'ऑनव्होलोप' बोला जाएगा अब मैं चकराई भाषा में भी 'नया-पुराना' पर ये तो शुरुआत थी फिर तो धीरे-धीरे मेरे सारे उच्चारण गलत सिद्ध होते गए शैड्यूल का स्कैड्यूल हुआ, 'एजुकेशन' 'एडुकेशन' बन गया, 'रिसीप्ट' को 'रिसीट' कर दिया गया... मैं तो इतनी घबराई कि हौले-हौले अँगरेजी से किनारा करने की ठान ली।
धीरे से एक दिन बेटी से पूछा, 'बेटा यदि सही उच्चारण ये है तो क्या हमारे शिक्षकों ने हमें गलत पढ़ाया था? बिटिया हँसकर बोली मम्मा, पहले वे ब्रिटिश अँगरेजी सिखाते थे क्योंकि हम अँगरेजों के गुलाम थे, अब हम अमेरिका को इम्प्रैस कर रहे हैं, इसलिए हम अमेरिकन इंग्लिश बोलते हैं।
ND
अँगरेजी लिखने व बोलने में भारी अंतर होता है। मगर हिन्दी जिस प्रकार बोली जाती है, उसी तरह लिखी जाती है। हिन्दी मातृभाषा होने के नाते बोलने-समझने में आसान होती है, वहीं अँगरेजी पढ़ते समय बच्चा पहले उसे मातृभाषा में ट्रांसलेट करके फिर आत्मसात करता है हमारी प्राथमिक शिक्षा का स्तर गिरने, शिक्षण की 'कॉस्ट' बढ़ने और सरकारी स्कूलों की साख घटाने का मुख्य कारण अँगरेजी का वर्चस्व बढ़ना ही है।
अँगरेजी के नाम पर पब्लिक स्कूलों का बढ़ता तामझाम, पहाड़-सी फीस और चमक-दमक ने भले ही 'तोता रटंत' कराके 'टॉपर्स' की संख्या में इजाफा कर दिया हो मगर ये पौध तैयार की जाती है विदेशों में बोली लगाने के लिए।
ND
क्या ही अच्छा होता, यदि स्पेन, जर्मनी, जापान, चीन आदि की तरह भारत में भी सारी शिक्षा सारे विषय केवल मातृभाषा/राष्ट्रभाषा में ही पढ़ाए जाते और अँगरेजी को द्वितीय अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ाने पर ही जोर दिया जाता। यदि अँगरेजी के बिना वे सारे देश भी तरक्की कर सकते हैं, वह भी अपनी मातृभाषा के बल पर... तो क्या भाषा की इतनी समृद्ध और उत्कृष्ट धरोहर पास होने पर भी हम भारतीयों का पंगु होकर किसी विदेशी भाषा के अधीन रहना तर्कसंगत है?
ND
लाख बदल जाएँ नजरें लाडलों की,
दिल में उसके कभी खटास नहीं होती।।
लेखक कभी निराश नहीं होता
लाख बदल जाएँ धारणाएँ समाज की,
लेखनी में उसके कभी विषाद नहीं होता।।
शिक्षक कभी निराश नहीं होता,
चाहे बदलती रहें परंपराएँ शिक्षा की
ज्ञान वीणा को उसकी वनवास नहीं होता।।
ND
अपनी ममता को घृणा में बदल,
जिस दिन निराश होगा लेखक
अपनी लेखनी को कर घायल,
या जब निराश होगा शिक्षक
होकर अज्ञान का कायल,
वह दिन सृष्टि पर
महाप्रलय का दिन होगा।।
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