Tuesday, July 30, 2013



 पदचिह्न 

उम्र छोड़ती जाती है  पदचिह्न
चेहरे पर हमारे कदम  दर कदम 
झुर्रियाँ , झाइयाँ ,धब्बे बनकर 
शायद  ही छुपा पाते हैं  प्रसाधन  उन्हें 

उम्र छोड़ती जाती है पदचिह्न 
शरीर पर हमारे कदम दर कदम 
मोटापा , रक्तचाप,संधिवात बनकर 
शायद ही मिटा पाती है दवाएँ जिन्हें 

कुछ पदचिहन छोड़ती है उम्र 
समझ पर भी कदम दर कदम 
बड़प्पन और सुन्दर विचार बनकर 
नहीं पड़ती जरुरत  छिपाने की जिन्हें 
क्योंकि 
जीवन सार्थक कहलाता है इनके होने पर ही 

भारती पंडित 

Wednesday, July 17, 2013




   अगला जन्म 
सड़क के किनारे बनी मजदूर बस्ती में वह अपने टूटे-फूटे झोंपड़े में बच्चों को बहला रही थी| भोजन के नाम पर बर्तन में चावल के चंद दाने थे | सोचती  थी बातों के बहलाव-फुसलाव के साथ परोसे गए चावल उनका पेट भरने में कामयाब हो जाएंगे | इतने में बड़ा बेटा बोला ," माँ , क्या अगला जन्म भी होता है?" 
वह बोली ,"हाँ बेटा , सुना तो है , क्यों ?
बेटा बोला ," फिर तो मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा की अगले जन्म में मुझे इंसान नहीं, सामने वाले बंगले का कुत्ता बनाना | पता है माँ , वह कुत्ता रोज़ दूध-बिस्कुट, अंडे-ब्रेड-मांस  खाता है | रोज़ महंगे शैम्पू से नहाता है और कार में भी घूमता है | और तो और बीमार पड़ जाने पर डॉक्टर उसे खुद देखने आते हैं | कुत्ता होकर कैसी ठाठ की जिन्दगी  है न उसकी ?"
उसकी आँखे फटी की फटी रहा गई थी | कानों में बच्चे के शब्द  भांय-भांय कर रहे थे| उसे लगा मानो सामने बैठा बच्चा अचानक कुत्ते की शक्ल का हो गया और भौं-भौं करता हुआ सामने वाले बंगले में घुस गया |


Wednesday, May 15, 2013

पिंजरे पैमानों के


अपने लिए आज़ादी की मांग करता मैं
जाने-अनजाने गढता जाता हूं
दूसरों के लिए पिंजरे पैमानों के
उठने-बैठने हंसने-रोने के
चरित्र व्यवहार बोलचाल के पैमाने
और सतत अभिलाषी रहता हूं कि
मेरे अपने सहज सहर्ष 
कैद होते जाए मेरे पैमानों में
मेरे जैसे मेरे मुताबिक
उनकों अपने सांचों में ढालता मैं
अक्सर भुला देता हूं
कि आज़ादी की एक मांग उनकी भी थी ..

भारती पंडित

Sunday, February 3, 2013

जीवन की पाठशाला में
भले ही न सीख सका मैं हिज्जे वर्णमाला के
अपनों से संवाद भली भाँति निभा रहा हूँ मैं ।
न पढ़ पाया चंद पन्ने किताबों के
किसी के दर्द को आँखों में पढ़ पाता हूँ मैं ।
अंकों की समझ शून्य थी मेरी
पर रिश्तों का गणित निभा जाता हूँ मैं ।
चाहे कर ना पाया होमवर्क कभी
माँ का हाथ हर काम में बंटाता हूँ मैं ।
प्रगति पत्रक में रहा अनुत्तीर्ण छात्र मैं
जीवन की पाठशाला में होनहार कहा जाता हूँ मैं ।
भारती पंडित
 

Thursday, January 17, 2013




ये शहर 

पौ फटते ही शुरू हो जाती है 
चहलकदमी शहर की 
आँख खुलते ही नज़र आती है 
गहमागहमी शहर की |
भागती बसें, दौड़ते रिक्शे ,
घिसटते कदम, लरजती साइकिलें
आदमी,औरत,मजदूर,बच्चे 
अपनी राहों पर चल पड़ते सच्चे ,
दिन ढले लौटते पंख पसारे 
बेनूर,निस्तेज,थके -हारे
रात गहराती है,सिमटती है ज़िन्दगी
 सुबह की उम्मीद में ढलती है ज़िन्दगी |
इनकी शाम के साथ  रौशन होती है एक सुबह
बारिश में बढ़ते कुकुरमुत्तों की तरह
बिखरती मस्तियां, छलकते है जाम 
उमड़ते हैं सपने , ढलती है शाम 
क्लब पार्टियों की रंगीन रातें 
वो बिजनेस की डीलिंग, सौदे की बातें |
कुछ ऐसे ही रंगों से ढलती है रात 
फिर उनकी सुबह को देती शुरुआत 
चुपके से कह जाती है बात इतनी 
कि उनकी सुबह से है रात इनकी |