Tuesday, October 23, 2012

एक दिवसीय साम्राज्य





बिट्टू को समझ में ही नहीं आ रहा था कि आज दादी से लेकर चाची, बुआ सबको हो क्या गया है. रोज तो उसे खूब भाव मिलता था, उसकी मान-मनुहार की जाती थी, उसके पहले  हुई तीन बहनों को तो कोई गिनती में गिनता  भी नहीं था . दादी तो सुबह होते ही उसके हाथ में दूध से भरा गिलास पकडाती थी ,साथ होता था मलाई लगा टोस्ट और बहनों को चाय से आधे भरे गिलास देकर काम पर लगा दिया जाता था . लड़की की जात हो, काम करना सीखोगी तभी ससुराल में निभोगी.. नहीं तो नाक कटाएंगी निगोड़ी.. जैसे प्रवचनों से ही बहनों का नाश्ता भी हो जाता था.. ..
पर आज तो रंग ढंग ही निराले थे. सुबह ही तीनों को बढ़िया उबटन लगाकर नहलाया गया, बालों की सुन्दर चोटी की गई, नए कपडे पहनाकर ऐसे तैयार किया गया मानो कोई त्योहार हो. बिट्टू की ओर तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया . देखते ही देखते घर में और भी लड़कियां जमा हो गई. पिताजी ने सबके पाँव पूजे, गरमा-गरम खीर पूरी खाने को दी. बिट्टू ने खीर के कटोरे को हाथ लगाया तो पिताजी ने आँखे लाल-पीली करके कहा," दस मिनिट सबर नहीं हैं, पहले कन्या तो खा ले.."
सारी कन्याएं घर-घर घूमती फिरी. यहाँ-से न्योता, वहाँ से न्योता ... खा-खाकर अघाई, खूब सिक्के, तरह तरह की चीजें इकठ्ठी कर घर ले आई. 
बिट्टू उदास हो घर के बाहर बैठा था कि पास का गुड्डू आया," क्या हुआ बोंस, परेशान क्यों हो?" बिट्टो ने मन की दुविधा कह डाली. मन में डर था कि कही उसका राजसिंहासन डोल तो नहीं रहा है..गुड्डू ठठाकर हंस पडा.." अरे चिंता मत कर छोरे, आज नवमी है ना ..देवी माँ का दिन.. बस एक ही दिन का राज -पाट है इनका .. कल से फिर जुट जाएँगी अपने काम-काज में.. अगली नवमी के इन्तजार में.."
. एक कड़वा सच..और सचमुच ही शाम होते ही घर-घर में कठोर पुकार मचने लगी.. अरी निगोड़ी.. खेलती ही रहेगी या माँ के साथ हाथ भी बंटाएगी?
 बिगुल बज गया था.. एक दिवसीय साम्राज्य के अंत का ...
भारती पंडित 

Monday, October 8, 2012


हसीं मोड़ 
अभी कुछ ही कदम चला था मैं 
महत्वाकांक्षा की राह पर 
इक हसीं मोड़ मिला और 
मिली दो चंचल आँखें 
कदम बहके थे ,अरमां दहके थे 
हौले से थामा था हाथ उसका 
खाकर साथ निभाने की कसमें 
हसीं मोड़ मुस्कुराया चंचल आँखें शरमाई 
फिर अभिलाषा भारी हुई चाहत से 
मैंने हौले से छुड़ाया था हाथ उसका 
और चल पड़ा था कहकर -'फिर मिलेंगे..'
हसीं मोड़ सहमा था ,चंचल आँखें बरस गईं ..
मैं बेखबर चल पड़ा था तरक्की की राह पर 
चलता रहा , भागता रहा 
कमाता रहा ,खर्चता रहा 
लुटता रहा , लुटाता रहा ..
एक दिन थककर हाँफ गया ..
जब बारी आई छालों भरे पांवों को सहलाने की 
तो अचानक याद आया वो मोड़ 
और याद आई वो चंचल आँखें .
लौट चला मैं उस राह पर 
जो जा मिलती थी उस मोड़ से 
जब पहुंचा तो पाया सब बदला सा 
वह मोड़ अब रास्ते में बदल गया था 
और चंचल आँखें हो गई थी पराई ..
हाँ जो पौधा हमने लगाया था ,
जिसे सींचा था उसके आँसुओं ने ,
उसपर मुस्कुरा रहे थे दो गुलाब 
मानो कहते हैं उपहास से 
"बहुत देर कर दी "..

Friday, October 5, 2012

Aalekh

भूख छपास की
आइए आज भूख की बात करते है..भूख केवल पेट की ही नहीं होती.. एक भूख होती है छपास की और मंच की. इस भूख को एक बीमारी भी कह सकते है, जिसका वाइरस अधिकतर साहित्यकारों को और कलाकारों को अपनी चपेट में लेता है.. कलाकार भी वे जिनके ढोल में पोल होती है. यह वाइरस धीरे-धीरे दिमाग में घर करता जाता है और सारे व्यक्तित्व पर हावी होता जाता है. इस भूख से पीड़ित व्यक्ति की आत्माभिमान करने के शक्ति बहुत बढ़ जाती है.. उसे अपनी कला पर आत्मविश्वास नहीं, अति विश्वास हो जाता है. वह दूसरों की सुनना बिलकुल बंद कर देता है और अपनी ढपली-अपना राग आलापना शुरू कर देता है. किसी समारोह में जाने पर उसकी पहली कोशिश होती है मंच पर चढ़कर माइक हथियाने की.. यदि सरलता से मिल जाए तो ठीक, अन्यथा वह "बस जरा सा कुछ कहना है" कहकर मंच पर चढ़ जाता है. कई बार तो इस मंच के लिए आयोजकों के कोपभाजन बनने से भी नहीं डरता . यह दीवानगी तब और बढ़ जाती है, जब समारोह को कवर करने रिपोर्टर्स आते है.. फिर तो धक्का-मुक्की करके ऐसी जगह पहुचने का प्रयास होता है कि कल के अखबार में मुखड़ा उनका ही चमकना चाहिए.. चाहे समारोह में कोई भागीदारी हो या न हो.. जब बहुत प्रयासों के बाद भी फोटो में जगह नहीं मिल पाती, तो सेटिंग करने से बाज नहीं आते.. और भगवान की दया से यदि किसी समारोह में कोई कविता सुनाने(मुख्य अतिथि के आने में देर होने पर) या गीत गाने का मौका मिल जाए, तो जोड़-तोड़ करके ,अपने प्रभाव या पद का उपयोग करके ऐसी जुगाड़ फिट करते है कि समारोह चाहे कोई भी हो, मुख्य धारा के समाचार में अपना नाम और फोटो डलवाकर ही दम लेते है.. आयोजक बेचारा अगले दिन का अख़बार देखकर बाल नोचकर रह जाता है .. उसके आयोजन के समाचार का बदला रूप देखकर सिवाय मन ही मन गाली देने के कर भी क्या सकता है .. मगर अगली बार उसे अपने आयोजन में कदम भी न रखने देने की कसम खा लेता है..
ये तो हुए लक्षण .. अब सवाल यह कि इस बीमारी का इलाज क्या हो..कई विशेषज्ञों से चर्चा करने के बाद पता लगा कि इस बीमारी का सिर्फ एक इलाज है और वो है अपने विषय में पारंगत होना.. जब मन में ज्ञान गंगा बहने लगेगी, तो व्यक्ति पठन-मनन में रूचि लेने लगेगा , जिससे संभवतः उसके मन की मलिनता दूर हो जाए और वह आत्म मंथन करने में सक्षम हो जाए. अपने आप को उस स्तर तक उठाने का प्रयास करने लगे, जब छपने के लिए उसे जोड़-तोड़ न करने पड़े, वरन लोग स्वयं उसके पीछे आने लगे..
खुद को कर इतना बुलंद कि आसमां लगे कमतर
उधारी से न भर दामन, बना खुद ही को बेहतर..
भारती पंडित
इंदौर

Pls think




चार दिनों से घर का नल लीक कर रहा है,प्लंबर के निहोरे कर-करके परेशान हूँ मगर वह है कि जबरदस्त भाव खा रहा है, खाए भी क्यों नहीं, पूरी कॉलोनी में अकेला ही है वह जो यह काम करता है..आजकल कोई भी पुश्तैनी काम जारी नहीं रखना चाहता, उसने भी आपने बेटे को बड़े स्कूल में डाला है, अफसर बनाने को..जरा कल्पना करें अगले २० वर्ष बाद की जब सामने खड़ी होगी अफसरों की भीड़ और न तो कारीगर मिलेगा, न प्लंबर..न बढई..न लोहार..क्या इनके न रहते सुव्यवस्थित घर केवल रूपए के बल पर बन सकेगा? क्या इन्हें परंपरागत व्यवसायों में बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए?  क्या इनके काम को आदर से नहीं देखना चाहिए?
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गणपति बप्पा की स्थापना, दस दिन तक उनका घर में निवास, पूजन-प्रसाद यहाँ तक तो सब बढ़िया लगता है..मगर फिर आता है विसर्जन का दिन,
वैसे ही बप्पा को विदा करते हुए मन भरा हुआ होता है उस पर विसर्जन के नाम पर यहां-वहां फैलाए गए निर्माल्य यानि कचरे के ढेर और पेयजल स्तोत्रों को प्रदूषित करती बप्पा की विखंडित प्रतिमाएं आखों में आँसू ही ले आती है | लोकमान्य तिलक जी द्वारा एक पवित्र उद्देश्य से शुरू किए सामूहिक गणेश उत्सव प्रदूषण के इस भयानक मंज़र के रूप सामने आएँगे, ये यदि वे जानते तो इस प्रथा को हरगिज़ शुरू न करते | हमारी धार्मिक मान्यताएं पर्यावरण रक्षा में क्यों कमजोर पड़ जाती है, समझ में नहीं आता. ना तो हम प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्ती लेना बंद करते हैं, ना ही उनका आकार छोटा रखना चाहते हैं , ना ही उनका तरीके से विसर्जन करना चाहते हैं..अब इस समस्या का हल तो बप्पा आप ही निकाल सकते हो..मैं तो कहती हूँ क़ि दस दिन शान से घरों में विराजो और अंतिम दिन स्वयं ही अंतर्धान हो जाया करो ..प्रदूषण का संकट ही ताल जाएगा..बप्पा, मेरी सलाह पर विचार जरुर करना ..