Sunday, May 23, 2010

कविता - पहलू

कभी देखा है उस मजदूर का घर ?
जो हमारे सपनों का आशियाँ बनाता है ,

रिसती छत, टूटती दीवारें
यहीं कुछ उसके हिस्से में आता है .


कभी देखी है उस किसान की रसोई?
जो हमारे लिए अनाज उगाता है,
मोटा चावल ,पानी भरी दाल
यहीं कुछ उसके हिस्से में आता है .


इस समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है ,
चाहकर भी कोई कुछ न कर पाता है ,
मेहनत तो आती है किसी और के हिस्से
और मुनाफे के लड्डू कोई और खाता है.

भारती पंडित
इंदौर

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