Saturday, May 29, 2010
हाल ही में आई. आई. टी. के नतीजे बड़े जोर शोर से घोषित हुए और बड़ी चतुराई से पेपर प्रिंटिंग में हुई गयी सारी गलतियों को दबा दिया गया और नतीजे घोषित कर दिए गए. सफल छात्रों को तो ताज पहना दिए गए मगर क्या उन छात्रों के बारे में किसी ने सोचा जो योग्य होते हुए भी पेपर की गलती की वजह से या परीक्षा हॉल में सही इंस्ट्रक्शन न मिलने के कारण कंफ्यूज हो गए और सफलता से वंचित रह गए. दो महत्वपूर्ण सालों की मेहनत के बाद भी दूसरे की गलती के कारण उन्हें मिली असफलता की जिम्मेदारी कोई ले सकता है? क्या शिक्षा के जाने माने संस्थानों की यह गलती माफ़ की जानी चाहिए ?
Wednesday, May 26, 2010
Monday, May 24, 2010
माँ गुजर जाने के बाद
ब्याहता बिटिया के हक में फर्क पड़ता है बहुत
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद
अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद
जो कभी था मेरा आँगन, घर मेरा, कमरा मेरा
अब वहाँ अनदेखे बंधन, माँ गुजर जाने के बाद
अब तो यूँ ही तारीखों पर निभ रहे त्योहार सब
खत्म वो रस्मे रवायत, माँ गुजर जाने के बाद
आए ना माँ की रसोई की वो भीनी सी महक
उठ गया मैके का दाना, माँ गुजर जाने के बाद
वो दीवाली की सजावट, फाग के वो गीत सारे
हो गई बिसरी सी बातें, माँ गुजर जाने के बाद
ब्याहता बिटिया के हक में फर्क पड़ता है बहुत
छूटती मैके की सरहद माँ गुजर जाने के बाद
अब नहीं आता संदेसा मान मनुहारों भरा
खत्म रिश्तों की लगावट माँ गुजर जाने के बाद
जो कभी था मेरा आँगन, घर मेरा, कमरा मेरा
अब वहाँ अनदेखे बंधन, माँ गुजर जाने के बाद
अब तो यूँ ही तारीखों पर निभ रहे त्योहार सब
खत्म वो रस्मे रवायत, माँ गुजर जाने के बाद
आए ना माँ की रसोई की वो भीनी सी महक
उठ गया मैके का दाना, माँ गुजर जाने के बाद
वो दीवाली की सजावट, फाग के वो गीत सारे
हो गई बिसरी सी बातें, माँ गुजर जाने के बाद
Sunday, May 23, 2010
कविता - पहलू
कभी देखा है उस मजदूर का घर ?
जो हमारे सपनों का आशियाँ बनाता है ,
रिसती छत, टूटती दीवारें
यहीं कुछ उसके हिस्से में आता है .
कभी देखी है उस किसान की रसोई?
जो हमारे लिए अनाज उगाता है,
मोटा चावल ,पानी भरी दाल
यहीं कुछ उसके हिस्से में आता है .
इस समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है ,
चाहकर भी कोई कुछ न कर पाता है ,
मेहनत तो आती है किसी और के हिस्से
और मुनाफे के लड्डू कोई और खाता है.
भारती पंडित
इंदौर
कभी देखा है उस मजदूर का घर ?
जो हमारे सपनों का आशियाँ बनाता है ,
रिसती छत, टूटती दीवारें
यहीं कुछ उसके हिस्से में आता है .
कभी देखी है उस किसान की रसोई?
जो हमारे लिए अनाज उगाता है,
मोटा चावल ,पानी भरी दाल
यहीं कुछ उसके हिस्से में आता है .
इस समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है ,
चाहकर भी कोई कुछ न कर पाता है ,
मेहनत तो आती है किसी और के हिस्से
और मुनाफे के लड्डू कोई और खाता है.
भारती पंडित
इंदौर
Thursday, May 13, 2010
Tuesday, May 11, 2010
Friday, May 7, 2010
इमारतें
कल तक जहां दिखते थे हरे लहलहाते खेत
अब नजर आने लगे हैं मशीनी दानव वहां
धरती के सीने पर चलेंगे पहेये बुलडोजर के
एक ही दिन में धरती बंजर वीरान हो जाएगी .
फिर शुरू होगा खेल खरीदो-फरोख्त का
और माँ सी उपजाऊ धरती बोली की भेंट चढ़ जाएगी ,
धन्ना सेठ ले आएगा आदमियों की फौज भारी
उपजाऊ खेतों को मिटा लम्बी इमारतें तानी जाएँगी .
घर -बाज़ार-स्कूल अस्पताल, लोगों की हलचल होगी
मगर इन सब में गुम हो जाएगी कराह धरती की.
क्या फिर पके दानों की महक हवा को महका पाएगी?
क्या फिर बैलों की घंटियाँ कानों में गूँज पाएंगी ?
शोरगुल में डूबे मन में क्या कभी ये सोच आएगी?
शाश्वत प्रकृति को तो नष्ट किया हमने ,अब
ये नश्वर इमारतें कितना साथ निभाएंगी?
भारती पंडित
इंदौर
कल तक जहां दिखते थे हरे लहलहाते खेत
अब नजर आने लगे हैं मशीनी दानव वहां
धरती के सीने पर चलेंगे पहेये बुलडोजर के
एक ही दिन में धरती बंजर वीरान हो जाएगी .
फिर शुरू होगा खेल खरीदो-फरोख्त का
और माँ सी उपजाऊ धरती बोली की भेंट चढ़ जाएगी ,
धन्ना सेठ ले आएगा आदमियों की फौज भारी
उपजाऊ खेतों को मिटा लम्बी इमारतें तानी जाएँगी .
घर -बाज़ार-स्कूल अस्पताल, लोगों की हलचल होगी
मगर इन सब में गुम हो जाएगी कराह धरती की.
क्या फिर पके दानों की महक हवा को महका पाएगी?
क्या फिर बैलों की घंटियाँ कानों में गूँज पाएंगी ?
शोरगुल में डूबे मन में क्या कभी ये सोच आएगी?
शाश्वत प्रकृति को तो नष्ट किया हमने ,अब
ये नश्वर इमारतें कितना साथ निभाएंगी?
भारती पंडित
इंदौर
Thursday, May 6, 2010
Wednesday, May 5, 2010
Monday, May 3, 2010
[1] औरत हूँ मैं.
अल-सुबह जब सूरज खोलता भी नहीं है
झरोखे आसमान के
चिडिया करवटें बदलती हैं
अपने घरोंदों में
उसके पहले उठ जाती हूँ मैं
घर को सजाती संवारती
सुबह के काम समेटती
चाय के कप हाथ में लिए
सबको जगाती हूँ मैं
जानती हूँ, औरत हूँ मैं ........
बच्चों की तैयारी,
पतिदेव की फरमाइशें
रसोई की आपा धापी
सासू माँ की हिदायतें
इन सब के बीच खुद को
समेटती सहेजती हूँ मैं.
कोशिश करती हूँ कि माथे पर
कोई शिकन न आने पाए
जानती हूँ औरत हूँ मैं.....
घर, दफ्तर,, मायका ससुराल
गली, कूचा ,मोहल्ला पड़ोस
सबके बीच संतुलन बनाती मैं
चोटों को दुलार, बड़ों को सम्मान
अपनापन सभी में बाँटती मैं
चाहे प्यार के चंद मीठे बोल
न आ पाए मेरी झोली में
जानती हूँ औरत हूँ मैं .......
कोई ज़ुबां से कहे न कहे
मेरी तारीफ़ के दो शब्द
भले ही ना करे कोई
मेरे परिश्रम की कद्र
अपने घर में अपनी अहमियत
जानती हूँ ,पहचानती हूँ मैं
घर जहां बस मैं हूँ
हर तस्वीर में दीवारों में
बच्चो की संस्कृति संस्कारों में
रसोई में, पूजाघर में
घर की समृद्धी, सौंदर्य में
पति के ह्रदय की गहराई में
खुशियों की मंद पुरवाई में
जानती हूँ बस मैं ही मैं हूँ
इसीलिए खुश होती हूँ
कि मैं एक औरत हूँ.
भारती पंडित
[२]
पहचान औरत की
उसे छूने दो उम्मीदों का अनंत आसमान
वह उड़ना चाहती है.
उसे दो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
वह बोलना चाहती है.
उसे दो विश्वास का संबल
वह कुछ कर गुजरना चाहती है .
उसे झांकने दो अंतर्मन में
वह स्वयं से साक्षात्कार करना चाहती है.
उसे लहराने दो सफलता के परचम
क्यूंकि केवल माँ ,पत्नी,बेटी ही नहीं
वह एक पहचाना नाम बनना चाहती है.
अल-सुबह जब सूरज खोलता भी नहीं है
झरोखे आसमान के
चिडिया करवटें बदलती हैं
अपने घरोंदों में
उसके पहले उठ जाती हूँ मैं
घर को सजाती संवारती
सुबह के काम समेटती
चाय के कप हाथ में लिए
सबको जगाती हूँ मैं
जानती हूँ, औरत हूँ मैं ........
बच्चों की तैयारी,
पतिदेव की फरमाइशें
रसोई की आपा धापी
सासू माँ की हिदायतें
इन सब के बीच खुद को
समेटती सहेजती हूँ मैं.
कोशिश करती हूँ कि माथे पर
कोई शिकन न आने पाए
जानती हूँ औरत हूँ मैं.....
घर, दफ्तर,, मायका ससुराल
गली, कूचा ,मोहल्ला पड़ोस
सबके बीच संतुलन बनाती मैं
चोटों को दुलार, बड़ों को सम्मान
अपनापन सभी में बाँटती मैं
चाहे प्यार के चंद मीठे बोल
न आ पाए मेरी झोली में
जानती हूँ औरत हूँ मैं .......
कोई ज़ुबां से कहे न कहे
मेरी तारीफ़ के दो शब्द
भले ही ना करे कोई
मेरे परिश्रम की कद्र
अपने घर में अपनी अहमियत
जानती हूँ ,पहचानती हूँ मैं
घर जहां बस मैं हूँ
हर तस्वीर में दीवारों में
बच्चो की संस्कृति संस्कारों में
रसोई में, पूजाघर में
घर की समृद्धी, सौंदर्य में
पति के ह्रदय की गहराई में
खुशियों की मंद पुरवाई में
जानती हूँ बस मैं ही मैं हूँ
इसीलिए खुश होती हूँ
कि मैं एक औरत हूँ.
भारती पंडित
[२]
पहचान औरत की
उसे छूने दो उम्मीदों का अनंत आसमान
वह उड़ना चाहती है.
उसे दो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
वह बोलना चाहती है.
उसे दो विश्वास का संबल
वह कुछ कर गुजरना चाहती है .
उसे झांकने दो अंतर्मन में
वह स्वयं से साक्षात्कार करना चाहती है.
उसे लहराने दो सफलता के परचम
क्यूंकि केवल माँ ,पत्नी,बेटी ही नहीं
वह एक पहचाना नाम बनना चाहती है.
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