Saturday, August 27, 2011

महिलाएँ चाहे तो रोक सकती हैं भ्रष्टाचार


भ्रष्टाचार के महामानव से आज सारा देश जूझ रहा है | भ्रष्टाचारी बाज़ नहीं आ रहे हैं और सारी सहनशीलता को दांव पर लगाने के बाद आज सारा देश अण्णा हजारे जी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खडा हुआ है | भ्रष्टाचार की जड़ में जाए और यदि इस बात पर गौर करे कि आखिर आदमी भ्रष्ट क्यों हो जाता है तो इस विचार के साथ ही इस समस्या का समाधान भी सामने आने लगेगा | भ्रष्टाचार का एकमात्र उद्देश्य अकूत धन-सम्पदा को प्राप्त करना , समस्त सुख-सुविधाओं का जमकर उपभोग करना और अपने धन संग्रह द्वारा अपने और अपने परिवार का रुतबा समाज में बढ़ाना होता है |जिस तरह किसी जादुई कहानी में जादूगर की जान किसी तोते में बासी रहती है , वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति की जान उसके परिवार में बसती है | व्यक्ति भ्रष्ट इसलिए भी होता है कि अपने परिवार को सुख-सुविधासम्पन्न बना सके |
एक साधारण कमाई करने वाला ईमानदार पति जब दिन-रात की मेहनत के बाद भी धन की कमी के चलते परेशानियों से जूझता रहता है , पत्नी के तानों का सामना करता है, बच्चों की हीन भावना को महसूस करता है तो कमाई बढ़ने के शोर्टकट ढूँढता है | इन्हीं शोर्ट कट्स की एक पतली गली जाती है काली कमाई के, भ्रष्टाचार के दोराहे पर .. इस दोराहे पर संतोष-समाधान के दायरे टूटते हैं और एक अच्छा खासा ईमानदार व्यक्ति बेईमानी की धुंध में घिरता जाता है |
कैसी विडम्बना है कि इमानदारी की जिस कमाई के घर आने पर घर में सदैव असंतोष व्याप्त रहता था , बेईमानी का धन आते ही घर सुखी हो जाता है , सुविधाओं से युक्त हो जाता है | सस्ती सड़ी में लिपटी रहने वाले पत्नी सिल्क की महंगी सदियों में लिपटी , गहनों से लदी-फंदी महंगी कारों में जाकर किसी महंगे होटल में किटी पार्टी की शोभा बढाती नज़र आती है | बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ने लगाते हैं, ब्रांडेड कपडे-जूते पहनने लगाते हैं | प्रथम दृष्टया तो घर में प्रसन्नता की देवी आनंदित हो नर्तन करती नज़र आती हैं मगर गहराई में जो कुछ चटक रहा होता है, संस्कार-संस्कृति की जड़े जो धीरे-धीरे जंग खाती हैं उनकी गूँज किसी धमाके सी भले ही न सुनाई दे मगर एक न एक दिन सारी खुशियाँ ध्वस्त करती ही हैं और हाथ आते हैं दुःख, अपयश औत जीवन भर की ग्लानि ..
अब यदि कल्पना करें ऐसे घर की जहाँ पति पहली बार बेईमानी से कमाया गया धन घर में लेकर आता और पत्नी उस धन का इस्तेमाल करने से इनकार कर दे ?.. बच्चे उस धन का उपयोग अपने स्तर , सुख-सुविधाओं में करने को तैयार न हो ?... माँ-बहन-भाभी-पत्नी के रूप में महिलाएं उसके इस कृत्य की भर्त्सना करना प्रारंभ कर दे ? .. क्या परिवार के असहयोग के चलते वह व्यक्ति गलत रास्ते पर जाकर धन कमाने का अगला प्रयास करना चाहेगा ? शायद नहीं ..
मगर यही समाज की त्रासदी है कि मुफ्त का सब स्वीकार है चाहे वह किसी भी कीमत पर मिल रहा हो | थोड़ा मिलने पर अधिक की ही नहीं बहुत अधिक पणे की चाहा है , दूसरों की होड़ की लालसा है , दिखावे की चाह है..और इसी में जमी हैं भ्रष्टाचार की जड़ें .. और दुःख है कि इन जड़ों में खाद-पानी डालने में महिलायें महती भूमिका अदा करती हैं |
स्त्री चाहे तो परिवार स्वर्ग बन सकता है यह कहावत यूं ही नहीं कही गई है | यह समय है आत्मावलोकन करने का .. यदि हर घर में स्त्री संतोषी -समाधानी हो , लालसा-होड़ से दूर हो, नैतिक मूल्यों से लबरेज़ हो और बच्चों में भी यहीं संस्कार रोपने का सामर्थ्य और इच्छा रखती हो तो शायद भ्रष्टाचार रूपी दानव का समूल नाश संभव हो सकता है | हाँ इन कोशिश में बाहरी सुख-सुविधाओं को भले ही त्यागना पड़ सकता है मगर आतंरिक सुख-समाधान की जो अनुभूति होगी, वह अतुलनीय होगी, अमूल्य होगी |
भारती पंडित
इंदौर


Tuesday, August 16, 2011

alekh

गले- गले तक आया भ्रष्टाचार
अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में सारे देश में भ्रष्टाचार विरोधी लहर दौड़ रही है.. गाँव कस्बों तक से लोग सडकों पर उतारकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं | भ्रष्टाचार आज गले की फांस बन चुका है और भ्रष्ट नेताओं-अधिकारियों को सज़ा के दायरे में लाना इस आन्दोलन का पावन उद्देश्य है |
भ्रष्टाचार को उपरोक्त सन्दर्भ में केवल रूपए-पैसों के घोटाले , काला धन जमा करने आदि के रूप में देखा जा रहा है | मगर भ्रष्टाचार शब्द की व्याख्या करें तो यह भ्रष्ट + आचार से मिलकर बना है जिसका अर्थ है वह आचरण जो समाज अनुरूप न हो, जो गरिमा अनुरूप न हो , तर्क सम्मत न हो , पदानुरूप न हो वह समस्त आचरण भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है | अब यदि भ्रष्टाचार की विस्तृत और गूढ़ व्याख्या करते हुए अपने आसपास नज़र घुमा कर देखा जाए तो एक नन्हे बच्चे से लेकर एक वृद्ध तक सभी जीवन के हर पड़ाव पर किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार को सहते नज़र आते हैं |
बच्चा जब बड़ा होता है ,स्कूल जाता है तो वहां भ्रष्टाचार विविध रूप में सीना ताने खडा नज़र आता है | एक योग्य बच्चे को किसी प्रतियोगिता में केवल इसलिए भाग लेने से वंचित किया जाता है कि दूसरा बच्चा शिक्षक का कृपाभाजन है या वह शिक्षक दूसरे बच्चे के पालकों का कृपा भाजन है | ये नन्हे बच्चे तो बेचारे कदम-कदम पर पार्शेलिती ,फेवरेटिस्म जैसे हथियारों के शिकार बनाए जाते हैं | इस माहौल में बड़ा होता बच्चा जब आगे जाकर शिक्षकों का प्रतिकार करता है तो उसे इसी बात के लिए दण्डित किया जाता है | घर-परिवार की ही बात करें तो आपसी रंजिश, धन की असमानता , सास-बहू की लड़ाई का पहला शिकार बच्चे ही बनते हैं | क्या इस भ्रष्टाचार की रोकथाम संभव होगी ?
स्कूल से निकलकर बच्चे कॉलेज में जाते हैं | वहां भी दाखिले से लेकर परीक्षाओं तक क्या कुछ सहना नहीं पड़ता उन्हें ..शिक्षक की कोचिंग न जाए तो प्रेक्टिकल में अंक कम मिलते हैं..यदि सीनियर्स की दादागिरी न सहें तो कॉलेज में रहना मुश्किल .. आइडिया चोरी, प्रोजेक्ट की चोरी , नक़ल का दबाव .. इतना ही नहीं पी.एच.डी की डिग्री तक के लिए प्रोफेसर्स के घर का राशन-पानी, सब्जी भाजी लानी होती है | क्या इस भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा ?
पढ़-लिखकर बच्चे किसी संस्था में कार्य करने लगाते हैं | कई बार योग्य होने पर भी उन्हें महज इसलिए आगे नहीं बढ़ने दिया जाता कि वे अधिकारी की जी-हुजूरी नहीं करते या दफ्तर में हो रहे गलत को गलत कहने का साहस दिखाते है | ये बच्चे पहले-पहल तो जोश में अपने संस्कार, संस्कृति , मर्यादा पर अडिग रहकर ईमानदारी का दामन थामे रखने की पुरजोर कोशिश करता है मगर जब यह जिद लगातार घाटे का सौदा साबित होने लगती है तो वह भी धारा के साथ बहकर लाभ लेने में ही भलाई समझता है और इस तरह एक निहायत ईमानदार व्यक्ति भ्रष्ट आचरण अपनाने पर विवश कर दिया जाता है | क्या इस ईमानदारी को बनाए रखने के लिए समूची व्यवस्था को , कार्य प्रणाली को बदलने का साहस कोई अधिकारी दिखाता है ? शायद नहीं |
सरकारी दफ्तर हो, पुलिस स्टेशन हो , रेलवे रिजवेर्शन हो.. यहाँ तक कि धर्म स्थान के दर्शन क्यों न हो .. हर तरफ पैसों और ताकत का बोलबाला है | कमजोर और गरीब व्यक्ति को इस देश में जीने का अधिकार नहीं मिल रहा है | मजेदार बात तो यह है कि भगवान न करे यदि कोई व्यक्ति दुर्घटना का शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उसके शव को अस्पताल से वापे लेने तक के लिए उसके परिजनों को नाकों चने चबाने पड़ते हैं |
आज हम भ्रष्टाचार की हवा में सांस लेने के आदी हो चुके हैं | भ्रष्टाचार हमारी रग- रग में खून बनकर दौड़ने लगा है | मेहनत की अपेक्षा चापलूसी , रिश्वत जैसे शोर्टकट तरक्की के आसान उपाय सिद्ध होते जा रहे हैं और इस अंधी दौड़ के हम इतने अभ्यस्त होते जा रहे हैं कि हमें अब किसी भी बात से फर्क नहीं पड़ता | हम तभी जागते हैं जब चोट हमारे निजी स्वार्थ पर की जाती है |
कोयले की इस दलाली में सभी के हाथ-मुंह रंगे हुए है अतः सुधार का सूत्र पकड़ना बड़ा ही कठिन है | बच्चों में संस्कार रोपने से पहले घर के बड़ों को आचरण सुधारने होगा, शिक्षकों को छात्रों के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करना होगा | कर्मचारियों को ईमानदार बनाए रखने के लिए ध्रुतराष्ट्र बने अधिकारियों को अपनी आँखों पर बंधी तृष्णा की पट्टी खोलकर समदृश्ता बनना होगा और सर्वोच्च सत्तासीन व्यक्तियों को समूची व्यवस्था को खंगालना होगा | सुधार की यह प्रक्रिया जटिल अवश्य है मगर कदाचित असंभव तो नहीं है |
भारती पंडित
इंदौर

Sunday, August 14, 2011

स्वतंत्रता के मायने


स्वतंत्रता दिवस की अल सुबह
मैं स्कूल जाने को थी तैयार ,
बस स्टॉप पर खड़ी थी
कर रही थी बस का इंतज़ार .
की एक बड़ा होता बच्चा
पास मेरे आया ,
छोटा सा एक तिरंगा
मेरे हाथों में थमाया .
बोला "दीदी स्कूल जा रही हो
आज के दिन ये तिरंगा क्यों भूले जा रही हो ..
तिरंगा देश की शान है ,
हर भारतीय की आन है ,
भारत की पहचान है ,
हम सबकी ये जान है "
उसका भाषण सुनकर मैं मुस्काई
हौले से थामा झंडा
और उससे मुखातिब हुई..
"बेटा बातें तो बड़ी अच्छी करते हो ,
संस्कारवान लगते हो ..
और क्या जानते हो स्वतंत्रता के बारे में ?
देश के सपूत लगाते हो
तभी देश के प्रति सुविचार रखते हो.."
मेरी बाते सुनकर वो बिदका
बोला " दीदी न करो टाइम खोटा..
समय है काम , काम है मोटा
ना मैं देश को जानूँ, न स्वतंत्रता पहचानूँ..
ये जो चार लाईने सुनाई है,
किसी नेता के भाषण से चुराई हैं ..
इसे सुनाने से बिक जाए झंडे,
इसीलिए मालिक ने सिखाई हैं..
देश स्वतन्त्र हो या परतंत्र
क्या फर्क पड़ता है ?
हम जैसों का पेट तो रोज़
गालियों से ही भरता है ..
बस साल में दो दिन आती है रौनक
जब तिरंगों की बिक्री होती है चकाचक
परिवार को मिलती है भूख से निजात
भाईयों के चेहरों की बदलती है रंगत ..
अगर यहीं स्वतंत्रता दिवस है तो
मैं चाहूँ यह हर रोज़ आए
बिकते रहे मेरे झंडे यूं ही
मेरे घर में भी रोटी महके,
मेरे घर भी लगे दाल को बघार
और मेरा परिवार भरपेट खाना खाए..

भारती पंडित

Tuesday, August 2, 2011

सिंघम

कल फिल्म सिंघम देखी . मुझे तो फिल्म बहुत अच्छी लगी क्योंकि यूं भी मैं एक्शन फ़िल्में शौक से देखती हूँ.. सार्थक विषयों पर बनी फ़िल्में मेरी पहली पसंद है और उससे भी बढ़कर यह कि फिल्म का हीरो मेरा पसंदीदा शख्स है.. मगर सिनेमा हाल की बात करू तो इवेनिंग शो में भी ढेरों युवा दर्शक मौजूद थे, फ्रेंड्स ( ओफकोर्स गर्ल फ्रेंड्स भी ) के साथ .. मगर एक सच्चे इंस्पेक्टर के द्वारा क़ानून तोड़ने वालों की जो हालत की जा रही थी, उस पर खुश होकर हाल में जो तालियाँ पड़ रही थी, जो उत्साह भरी ' वाह-वाह' गूँज रही थी उससे लगा कि आज सचमुच इन पोलिटीशियंस ने देश की जो हालत कर डाली है, उससे देश का युवा सबसे ज्यादा त्रस्त है.. अब तक हमारे दिलों में युवा की छवि ' शाइनिंग इंडिया ' के भरपूर पॅकेज पाने वाले, अपने बारे में सोचने वाले.. तनिक स्वार्थी से समूह के रूप में ही बनी हुई है.. मगर ऐसे युवा शायद नगण्य से प्रतिशत में है.. बाकी युवक अब भी देश का विकास चाहते है, देश की हालत को सुधारना चाहते हैं... बस कमी है एक साहसी, ईमानदारऔर कर्मठ नेता की .. जो उन्हें मार्गदर्शित कर सकें... स्वयं भ्रष्ट हुए बिना विकास में मार्ग को प्रशस्त कर सकें.. और उसी सपनों के नेता की छवि उन्हें सिंघम के इंस्पेक्टर " बाजीराव " में दिखी हो...
एक विचार और भी आया मन में .. कि आज नेता के बाद अभिनेता ही सबसे सक्षम स्थिति में हैं जो धन- प्रतिष्ठा से लदे हैं .. क्या उनका कर्त्तव्य नहीं बनता कि देश में व्याप्त इस अंधेर राज के खिलाफ कोई तो आवाज उठाएं? जिस धरती और उसके नागरिकों ने उन्हें सिर -माथे पर बिठाया है, उसके प्रति उनका क्या कोई कर्त्तव्य नहीं बनता ?