Sunday, June 27, 2010

बिटिया हमारी
यूं मजबूरियों का बने ना तमाशा ,दो सिक्कों की खातिर कोई घर न तोड़ो
न तुम जान से खेलो ,ये रिश्तें न छीनो
ये कहता है इंसानियत का तकाजा , किसी जिन्दगी का उजाला न छीनों

जो जन्मे हैं बेटा तो गूंजे है सरगम
वही घर में बिटिया के आने पे मातम
क्यों माता ही हाथों में धरती है खंजर
ये बिटिया ही तो घर को घर है बनाती
उसी से सुखों का निवाला न छीनों (१)

सुबह तो हुई पर ये कैसा नजारा
कहीं रोती बहुएँ, कहीं मरती बाला
क्यूं बनती हैं नारी सितम का निवाला
है जीने का हक़ तो उन्हें भी है आखिर
किसी से किसी का सहारा ना छीनों (२)
भारती पंडित

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