Sunday, November 19, 2017

   
तुम्हारी सुलू – दूसरा दिन, दूसरा शो
फिल्म के प्रोमो देख-देखकर ही उत्सुकता जाग उठी थी इस फिल्म को देखने की...आखिरकार दूसरे दिन एंट्री ले ही ली थिएटर में...ट्रेलर और अखबार की समीक्षा से कहानी का अंदाज़ तो लग ही गया होगा, पर कुछ महत्वपूर्ण बातें जरूर बताना चाहूँगी इस फिल्म के बारे में|
सबसे पहले तो यह फिल्म शिक्षा व्यवस्था की उस पारंपरिक और आउटडेटेड होने के बावजूद आज भी व्याप्त सोच पर करारा व्यंग्य करती है जहाँ भले ही कितने ही हुनर हो व्यक्ति में, यदि तीन घंटे के पेपर में सफलता नहीं हासिल की यानी बारहवी का प्रमाणपत्र हासिल नहीं किया, तो जीवन बेकार है| तो इस फिल्म की नायिका सुलू उर्फ़ सुलोचना ऐसी ही एक बारहवी फेल छात्रा हैं, जो खासी हुनरमंद और नए-नए कामों की आज़माइश के लिए उत्साहित हैं मगर बारहवी फेल का तमगा उसका साथ नहीं छोड़ता और हर घर की ही तरह यहाँ भी उसकी लड़ाई उसके अपनों से यानी पिता, बहनों और जीजाओं से ही है| और हमारी नायिका इस सत्य के प्रति स्वीकार भाव रखते हुए रेडियो जॉकी की नौकरी का प्रस्ताव मिलने पर पूछती है, बारहवी फेल हूँ मैं, चलेगा न?  
   दूसरी महत्वपूर्ण बात जिसकी ओर यह फिल्म इशारा करती है, वह है हमारे यहाँ व्यवसाय में पदानुक्रम का लागू होना यानी कुछ पेशे गर्व के भाव से देखे जाते हैं और कुछ को हेय माना जाता है| रेडियो पर रात का शो एंकर करने का प्रस्ताव है सुलू के पास, और काम भी यह कि दिन भर के थके-हारे कामगार लोग उससे कुछ मज़े की बातें कर सके| सुनने में यह अटपटा लगता है मगर गहराई से सोचे तो हमारे यहाँ भावनात्मक स्वास्थ्य की स्थिति इतनी खराब है कि लगातार परेशानियों से जूझते परिवारों के लिए घर तो शायद ही सुकून का स्थल होते हो| संवाद तो लगभग खत्म से हैं| कोई हमारी बात सुन भर ले, इसका तक अकाल पड़ा रहता है| यहाँ एक और बात सुलू स्थापित करती है कि गन्दगी लोगों के मन में होती है, काम की अवधारणा में नहीं और इसी सोच के साथ सुलू इस शो को जन-सामान्य का शो बना डालती है मगर उसकी बहनें रात के शो को गंदा काम कहकर उसका मनोबल नीचे गिराने का पूरा प्रयास करती हैं| वे उच्च शिक्षित हैं अतः उनकी नौकरी, उनका टूर पर जाना सम्माननीय है मगर सुलू का रात के शो के लिए घर से बाहर जाना हेय काम है|
   तो कहानी हमारे-आपके जैसे मध्यम वर्ग के घर की ही है, फिल्म के बहुत से फ्रेम में बार-बार हम अपने आप को जीते हुए देखते हैं| पति-पत्नी के बीच की नोंक-झोंक हो, प्यार के लम्हे हो या बहस...सब कुछ बेहद जीवंत बन पड़ा है| स्वस्थ हास्य कैसे चुटीले संवादों द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है, इसका हर सीन में अहसास होता है| जेंडर के मुद्दे जैसे पत्नी के नौकरीशुदा होने के बाद भी घर की देखभाल न कर पाने को लेकर बेवजह अपराधी महसूस करना, पति का गुस्सा झेलना आदि भी बार-बार उद्वेलित करते हैं, वहीं पति-पत्नी के बीच की केमिस्ट्री मन को छूती है| विद्या का अभिनय तो दिनोंदिन निखरता जा ही रहा है, मानव कौल भी एकदम परफेक्ट है अपनी भूमिका में| नेहा धूपिया ने भी प्रभावित किया|
हाँ, अंत थोड़ा उलझाता है...नौकरी छोड़ कर बैठे पति को काम दिलवाना भी पत्नी की ज़िम्मेदारी क्यों है? और इस्तीफ़ा देने आई सुलू बिजनेस का नया आइडिया मिलने के बाद भी फिर आरजे कैसे बन जाती है... उस शॉट पर तो दिल धड़क रहा था कि यदि इसने घबराकर नौकरी छोड़ दी तो??? सबसे पहले इसके निर्देशक को ट्वीट करके पूछूंगी कि भाई क्या सोचकर ऐसा करवाया सुलू से? पर इसकी नौबत नहीं आई...

तो एक बार जरूर देखें तुम्हारी सुलू और सपरिवार देखें...सुरेश त्रिवेणी ने इसके हर फ्रेम को खूबसूरती से उकेरा है जिसे जरूर देखना चाहिए...