Monday, April 16, 2012

सपनों की सुबह

हर सुबह
जब दफ्तर जाती हुई भीड़ का एक हिस्सा बनकर
दो-चार होती हूँ सड़क के ट्रेफिक से
तब अंतर्मन में दबी एक सुप्त सी आशा
हौले से सिर उठने लगती है ..
जब कभी देखती हूँ किसी को
सुबह-सुबह जोगिंग करते
या बालकनी में बैठ चाय सुड़कते ,
अखबार पलटते ..तो
ईर्ष्या की नन्ही सी चिंगारी सुलग जाती है मन में
और फिर दबी सी वह आशा
फिर सिर उठाने लगती है ..
क्या कभी ऐसा होगा जब
मेरा समय होगा सिर्फ मेरा अपना
और होगा सब कुछ वैसा जैसे मैं चाहूँ..
जब मैं सोना चाहूँ, न हो अलार्म की टन-टन
जब मैं कुछ पढ़ना चाहूँ , न हो बर्तनों की खडखडाहट
ना हो सुबह की आपाधापी
ना हो शाम की खींचा तानी
बस घर हो सपनों के घर जैसा और
मैं बन जाऊं उस घर की रानी
बस के धचके के साथ ही जाग जाती हूँ
अपने टूटे सपने के किरचें समेटे
टूटी आशा को फीकी हँसी में समेटते
जानती हूँ मेरी ये सोच बेमानी है,
हर मिडिल क्लास नारी की
बस यही कहानी है ..
जहाँ सपने सिर्फ सपने होते हैं
और यथार्थ हर सपने पर भारी है ..
उस पर नारी की दोहरी जिम्मेवारी है
सब कुछ निभाकर भी बेचारी है ...
रोज सुबह इसी सपने के साथ
शुरू करती हूँ दिन अपना
और फिर दिखा देती हूँ माचिस उसे ..
और.. हर नई सुबह फिर थाम लेती हूँ
उम्मीद भरे सपने का दामन
की वो सुबह कभी तो आएगी ..

भारती पंडित

No comments:

Post a Comment