Sunday, July 17, 2011

चोरी तेरे कितने रूप


बचपन से सुनते आए हैं कि चोरी करना पाप है... चोरी से ही नहीं , चोरो से भी डर लगता आया है हमेशा ... पर उस समय वही पता था कि चोरी वस्तुओं की होती है.. यानि रुपयों की, जूतों की , कपड़ो की ..... थोड़ी बड़ी हुई, कॉलेज में प्रोजेक्ट करते हुए मेरे सारे आइडियाज मेरी सहेली ने टाप लिए और मुझसे ज्यादा अंक ले आई तो पता चला कि चोरी आपके विचारों की भी हो सकती है.. ऐसी ही चोरी हमारे एक परिचित भी करने के आदी हैं जो दूसरों के तकिया कलाम, मूल्यवान कथन कुशलता से चुरा लेते हैं और अपनी बातचीत में उनका इस कदर उपयोग करते हैं कि वे कथन उनके अपने कहे ही बन जाते है.
जब लेखन के क्षेत्र में उतरी तो पता चला कि चोरी का एक प्रकार रचनाओं की चोरी भी होता है.. वेब दुनिया पर ज्योतिष विषय पर छपने वाले मेरे ढेरों लेख इंदौर के लोकल समाचार पत्रों में यत्र-तत्र छापे हुए पाए जाने लगे और प्रायः परचून की दुकान से आये सामान के माध्यम से मुझे उनके दर्शन होने लगे. मैं तिलमिलाई तो बहुत .. संपादकों को फोन भी किया .. पर बस एक सॉरी उछाल दिया गया मेरी ओर..
अभी हाल ही में मुझे पता चला है कि संस्थाओं की सदस्यता , कार्यकर्ता होने का क्रेडिट भी चोरी किया जाने लगा है. हमारी संस्था जो समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करती है, उसका नाम हमारे एक परिचित बड़ी तन्मयता से अपने निजी लाभ के लिए उपयोग में ले रहे है और एक बार दी गई छोटी सी दान राशि के एवज में स्वयं को संस्था का सक्रिय कार्यकर्ता बताकर इनाम आदि भी जीत रहे हैं. अब प्रश्न यह है कि ऐसे लोगो के चलते हमारे जमीनी कार्यकर्ताओं के मन पर क्या बीत रही होगी , जो पहले दिन से संस्था से जुड़े हुए हैं और बिना किसी लाभ का गणित बिठाए निष्काम सेवा कार्य को अंजाम दे रहे हैं? मेरा रोष उन संस्थाओं पर भी हैं जो इनाम देने से पहले प्रतिभागी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की जांच तक नहीं करती हैं और खैरात जैसे इनाम बाँट देती हैं. उनकी विश्वसनीयता कितनी खोखली है?
खैर तो हम बात कर रहे थे चोरी की .. तो साथियों , चोरी के इतने प्रकारों से मेरा वास्ता पड़ चुका है..ये लेख लिखते हुए ही पता चला कि पार्किंग में रखी मेरे बेटे की साइकिल अभी-अभी चोरी हो गई है.. अब ज़रा स्थिति का जायजा ले लूं.. फिर मिलते हैं..

भारती पंडित

चोरी तेरे कितने रूप


बचपन से सुनते आए हैं कि चोरी करना पाप है... चोरी से ही नहीं , चोरो से भी डर लगता आया है हमेशा ... पर उस समय वही पता था कि चोरी वस्तुओं की होती है.. यानि रुपयों की, जूतों की , कपड़ो की ..... थोड़ी बड़ी हुई, कॉलेज में प्रोजेक्ट करते हुए मेरे सारे आइडियाज मेरी सहेली ने टाप लिए और मुझसे ज्यादा अंक ले आई तो पता चला कि चोरी आपके विचारों की भी हो सकती है.. ऐसी ही चोरी हमारे एक परिचित भी करने के आदी हैं जो दूसरों के तकिया कलाम, मूल्यवान कथन कुशलता से चुरा लेते हैं और अपनी बातचीत में उनका इस कदर उपयोग करते हैं कि वे कथन उनके अपने कहे ही बन जाते है.
जब लेखन के क्षेत्र में उतरी तो पता चला कि चोरी का एक प्रकार रचनाओं की चोरी भी होता है.. वेब दुनिया पर ज्योतिष विषय पर छपने वाले मेरे ढेरों लेख इंदौर के लोकल समाचार पत्रों में यत्र-तत्र छापे हुए पाए जाने लगे और प्रायः परचून की दुकान से आये सामान के माध्यम से मुझे उनके दर्शन होने लगे. मैं तिलमिलाई तो बहुत .. संपादकों को फोन भी किया .. पर बस एक सॉरी उछाल दिया गया मेरी ओर..
अभी हाल ही में मुझे पता चला है कि संस्थाओं की सदस्यता , कार्यकर्ता होने का क्रेडिट भी चोरी किया जाने लगा है. हमारी संस्था जो समाज सेवा के क्षेत्र में कार्य करती है, उसका नाम हमारे एक परिचित बड़ी तन्मयता से अपने निजी लाभ के लिए उपयोग में ले रहे है और एक बार दी गई छोटी सी दान राशि के एवज में स्वयं को संस्था का सक्रिय कार्यकर्ता बताकर इनाम आदि भी जीत रहे हैं. अब प्रश्न यह है कि ऐसे लोगो के चलते हमारे जमीनी कार्यकर्ताओं के मन पर क्या बीत रही होगी , जो पहले दिन से संस्था से जुड़े हुए हैं और बिना किसी लाभ का गणित बिठाए निष्काम सेवा कार्य को अंजाम दे रहे हैं? मेरा रोष उन संस्थाओं पर भी हैं जो इनाम देने से पहले प्रतिभागी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की जांच तक नहीं करती हैं और खैरात जैसे इनाम बाँट देती हैं. उनकी विश्वसनीयता कितनी खोखली है?
खैर तो हम बात कर रहे थे चोरी की .. तो साथियों , चोरी के इतने प्रकारों से मेरा वास्ता पड़ चुका है..ये लेख लिखते हुए ही पता चला कि पार्किंग में रखी मेरे बेटे की साइकिल अभी-अभी चोरी हो गई है.. अब ज़रा स्थिति का जायजा ले लूं.. फिर मिलते हैं..

भारती पंडित

Saturday, July 9, 2011

बात ईश्वर की है.....

कल रात मुझे भगवान पर बड़ी दया आई. आप सोचोगे, ये मुझे क्या हो गया है..मेरी इतनी हिम्मत कि भगवान को दया का पात्र बनाऊँ? कल रात पड़ोस के मंदिर में रामायण पाठ चल रहा था.. वो भी बड़ी वोल्यूम वाला भोंपू लगाकर.. होता अक्सर यही है कि भोंपू के आगे सारे कनसुरे बैठकर बेसुरा राग अलापते हैं और अडोस-पड़ोस वालों को उसे झेलना मजबूरी बन जाता है..
अब बात ईश्वर की है अतः आवाज कम कर के रखो, यह कहकर बर्र के छत्ते में हाथ कौन डाले, सो अपने अपने घरों में भुनभुनाते बैठे रहते है.. हां तो बात चल रही थी भगवान की.. मेरे मन में यही विचार आया कि हम लोग इतनी दूर होकर भी आवाज से इतने परेशान हो रहे है, तो कुछ कदम पर बैठा भगवान बेचारा कितना परेशान हो रहा होगा.. और यह परेशानी भी एक दिन की नहीं, मोहल्ले में करीब २० धर्म स्थान होंगे, और हरेक जैसे एक दूसरे की होड़ में भोंपू बजाता ही रहता है.. मेरे मन में यह ख्याल भी आया कि ऐसा तो नहीं कि इस ध्वनि प्रदूषण के कारण भगवान के कर्ण यंत्रों ने काम करना बंद कर दिया हो .. इसलिए वे भूख,गरीबी,भ्रष्टाचार ,वेदना से पीड़ित जनता की आर्त पुकार भी नहीं सुन पा रहे हो? और नाराज होकर " जा, न मैंने कुछ सुना , न देखा " कहकर आंख-कान बंद कर बैठ गए हो?
वैसे आज तक यही सुना है कि प्रार्थना तो मन से की जाती है, तो ये भोंपू और ढोल-धमाको का हुड़दंग प्रार्थना के लिए क्यों ? मैं तो आजतक नहीं समझ पाई... आप को पता हो तो जरुर बताए ....
भारती पंडित