Saturday, June 25, 2011

अपराधों में लिप्त होती लड़कियां


इंदौर के बहुचर्चित तिहरे हत्याकांड का पर्दाफाश होते ही आँखे फटी की फटी रह गई | हालांकि बड़े शहरों के लिए ये हत्याएं भी मानो दिनचर्या का ही एक हिस्सा बन गई है, जिन्हें सुबह पढ़कर शाम को भुला दिया जाता है.. मगर इस बार दिल दहलाने वाली बात यह थी कि सारे हत्याकांड की सूत्रधार थी कुल जमा २३-२४ वर्ष की एक युवा लड़की जिसने बड़ी कुशलता से अपने अपराधिक पृष्ठभूमि वाले पुरुष मित्रों के साथ मिलकर इस पाशविक खेल को अंजाम दिया | इस खूनी खेल को खेलते समय उसका मन जरा भी नहीं हिचकिचाया | यहाँ तक कि अपने साथियों को क़त्ल करते छोड़ वह कीमती सामान बटोरती रही |
नारी के सुकोमलता, दिव्यता और स्नेहशीलता के कसीदे पढ़नेवाले कवियों की लेखनी यह पढ़कर कहीं तो तिलमिलाई होगी, नव यौवन को कली के उपमा देने वाले लेखकों की आँखें जरुर इस बर्बरता को देख डबडबाई होंगी |
पिछले ५-६ वर्षों में स्वतंत्रता के नाम पर जो भयानाक उबाल समाज में आया है , उसने संस्कार-सभ्यता के आवरण की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं | उच्च -आभिज्यात्य वर्ग तो पहले ही बंधन मुक्त था , तेजी से बढ़ते जीवन स्तर ने मध्यम वर्ग के लिए भी बंधन मुक्त नीलाकाश खोल दिया | पहले यह मुक्ति केवल लड़कों के लिए ही स्वीकार्य थी, धीरे-धीरे लड़कियों को भी समस्त वर्जनाओं से मुक्त करके पतंग की तरह मुक्ताकाश में हिलोरे लेने के लिए छोड़ दिया जाने लगा | पढ़ने के नाम पर, नौकरी के नाम पर हजारों लड़कियां बड़े शहरों का रुख करती है, होस्टल में रहती हैं और उनमें से अधिंकाश देर रात की पार्टियों, क्लब, नशा ,बायफ्रेंड्स को दिनचर्या का हिस्सा बना लेती हैं | माता-पिता अपनी पेट की रोटी में कटौती करके उन्हें मनमाना रुपया भेजते हैं एक विश्वास के बल पर ..मगर कभी उस विश्वास पर जरा सा अविश्वास करके यह जानने की कोशिश नहीं करते कि कहीं उनके विश्वास को छला तो नहीं जा रहा ?
जिस नारी को घर बनने वाली कहा जाता है, जिसे स्नेह और धैर्य का पर्याय माना जाता है , वह अचानक कैसे इतनी लालसाओं का शिकार बन गई कि अकूत धन की चाह लिए हत्या जैसा अपराध करने में भी न हिचकिचाई हो ? क्या उसके जन्म पर उसके कानों में संस्कार रूपी मन्त्र नहीं फूँका गया होगा ? क्या माँ-दादी के स्नेहिल छाया से उसने कुछ नहीं सीखा होगा ? फिर गलती कहाँ हो गई ?
कहीं गलती की शुरुवात तभी तो नहीं हुई , जब कामकाजी माँ ने गोद के बच्चे को क्रेश के हवाले किया था .. या फिर तब जब गुड्डे-गुड़ियों से खेलने की उम्र में बच्चे के हाथों में महंगे मोबाइल पकड़ा दिए गए .. या फिर तब जब पंचंतंत्र की पुस्तक छीनकर उन्हें बुद्धू बक्से के सामने बिठा दिया गया ?
पहले धन केवल आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के लिए कमाया जाता था | जिसे भाग्य व प्रयास से जितना मिल जाता था, वह उसमे खुश रहता था .. घर की स्त्री उपलब्ध पैसों में न केवल घर चलाती थी, वरन आड़े वक्त के लिए कुछ रूपया बचा भी लेती थी ..परिवार के हित के लिए उसका स्व हित कभी भी आड़े नहीं आता था | फिर अचानक स्त्री स्वतन्त्र हो गई , पढ़ा-लिखकर ढेर सारा धन कमाने लगी | बाजार भी विज्ञापनों के माध्यम से व्यापक पैर पसारता हुआ व्यक्ति को विलासिता के जाल में उलझाने लगा और उसके दिमाग में यह ठूंसने लगा कि अगर ये सुविधाएं पास नहीं तो जीवन का कोई अर्थ नहीं ..अब जब वार मर्म पर था तो इससे कोमलांगी नारी भला कैसे बचा पाती? कामनाओं ने लालसा का रूप लिया, और लालसाएं तृष्णा का रूप धरकर दिलो दिमाग पर छा गई | उसी से जन्म हुआ येन-केन प्रकारेण अपनी इच्छा पूर्ति कर लेने की युक्ति का .. अब जब घर-घर में माँ इस लोभ वृक्ष का भार धो रही हो तो बेटी को राह कौन दिखाए ? रहा-सहा गणित एकल होते परिवारों ने पूरा कर दिया | माता-पिता से संवाद नहीं , दादा-दादी का साथ नहीं .. कौन संस्कारों का पाठ पढाए ? कौन रोल मोडल बनाकर बच्चों को सही राह दिखाए ? पहले तो अडोस-पड़ोस के सम्बन्ध ही इतने आत्मीय और मजबूत हुआ करते थे कि मोहल्ले भर के जवान होते लडके - लड़कियों पर अड़ोसी-पड़ोसी ही नज़र रख लिया करते थे | वक्त पड़ने पर कान उमेठकर दो चांटे भी लग दिया करते थे ..
आज गली मोहल्ले की बात छोड़ो, अगल-बगल लगे फ्लेट में भी लोग एक दूसरे का नाम-परिचय नहीं जानते | शीशे की चारदीवारी में कैद संवेदनाहीन बुत भला किसी की मदद को कैसे आगे बढ़ेंगे ?
इस सारे प्रकरण में एक और बात बेतरहा खटकी .. वो यह कि लड़कियों के लिए विवाह का एकमात्र मतलब केवल सुख-सुविधायुक्त जीवन जीना रहा गया है | यहाँ दिल का , भावनाओं का कोई बंधन नहीं है .. पति का सम्मानित-स्तरीय होना सब कुछ पैसे की चमक के आगे गौण है.. प्रधान है बस रूपया और उसके लिए कुछ भी स्वीकार्य है.. यहाँ तक कि अपराधिक पृष्ठभूमि वाला पति भी ..
जो हो रहा है , वह हम सभी को हमारी कुम्भकर्णी नींद से झिंझोड़कर जगाने के लिए काफी है..
अगर अब भी नहीं जागेंगे, ..तो शायद बहुत देर हो जाएगी .. सभ्यता और संस्कारों की थाती में भयानक विस्फोटों की शृंखला के बाद जब हम जागेंगे तो सब कुछ बिखर चुका होगा ..किर्च-किर्च हो चुका होगा ...इतना कि उसे जोड़कर पुनः समाज की रचना करना असंभव ही होगा ..
भारती पंडित
इंदौर

Monday, June 20, 2011

पितृ दिवस

पितृ दिवस पर दिवंगत पिताजी की स्मृति में दो कविताएँ ..जिन पौधों को उन्होंने रोपा था, उन्हें पुष्पित होते देखने से पहले ही वे चल बसे..

१. पिता का साया

खुशहाल घर पर पिता का साया
मानो आँगन की धूप में बरगद की छाया
छाया जो सहती है सूरज की तपन
ताकि घर को न छू पे कोई अगन
शाखाओं सी फैली पिता की वो बाँहे
जो रोकती है हरेक संकट की राहें
फौलाद सा बना सीना पिता का
जिससे लिपट बोझ हल्का हो जां का
जड़ों सी गहरी सोच है पिता की
पीढी दर पीढी संस्कार तराशती
मिलती रहे बच्चों को ये इनायत
हर घर पर ये साया रहे सलामत

-------------------------------------------------------------------------------------------------------

२.याद आती है पिताजी की सूनी आँखें

आजकल अक्सर याद आती है
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थी देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।

आजकल अक्सर याद आता है,
पिताजी का तमतमाया चेहरा,
जो बिफर-बिफर पड़ता था,
मेरे देर से घर लौटने पर।

अब भली लगती हैं,
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुन-सुन कभी,
उबल-उबल जाता था मैं।

आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी,
जो कभी हुआ करती थी,
उलझन का सामान मेरी।

अक्सर हैरान होता हूँ इस बदलाव पर
जब उनके रूप में खुद को पाता हूँ।
क्योंकि अब मेरा अपना बेटा
पूरे अट्ठारह का हो गया है।
भारती पंडित

Thursday, June 9, 2011

बाबा का दरबार या श्रद्धा का व्यवसाय

कल ही शिर्डी से वापस आई . बाबा के दरबार में जाने का हमेशा ही चाव रहता है.. मगर इस बार चार साल बाद जाना हुआ.. और एक बात तीव्रता से अनुभव हुई कि चमत्कार को सभी नमस्कार करते हैं.. जैसे जैसे भक्तों के मन में देवता का स्थान बढ़ने लगता है, मंदिर के गुम्बद में स्वर्ण की मात्रा बढ़ने लगती है और मंदिर की दीवारों को भी इस कदर स्वर्ण जडित कर दिया जाता है कि गहन सुरक्षा में भगवान कही भक्तों से बहुत दूर रह जाते है.. इस बार शिर्डी में भयंकर भीड़ थी, दूर दूर से भक्त आए थे .. गरीब से गरीब और अमीर से अमीर बाबा के एक बार दर्शन की आस लिए उत्सुक था दरबार में हाजिरी लगाने के लिए.. उनमें से एक मैं भी थी .. कई सारी मन्नते थी जो बाबा ने पिछले वर्षों में पूरी की थी.. कई सारी बातें थी जो बाबा से कहनी थी..मगर दो घंटे निरंतर पसीना बहाने के बाद जब बाबा के समीप जाने का मौका मिला.तो उस मूर्ति की भव्यता को नयनों में भरने से पहले ही पुलिसवाले ने धकिया दिया.. केवल मेरे साथ ही नहीं, हरेक भक्त के साथ ऐसा ही व्यवहार हो रहा था .. यहाँ तक कि लाया गया प्रसाद और फूल आदि भी समाधि को स्पर्श तक कराने की जरुरत नहीं समझी जा रही थी .. मेरा बेटा तो रो पड़ा कि मैं बाबा को ठीक से देख भी नहीं पाया..
मंदिर से बाहर निकलते हुए मन में एक ही सवाल उठ रहा था.. क्या श्रद्धा का इस तरह का व्यवसायीकरण उचित है? क्या बाबा का मन भक्तों से दूर रहकर या अपने भक्तों को यूं धकियाते देखकर दुखता नहीं होगा ? कितने गरीब तो बड़ी मुश्किल से किराए की जुगाड़ करके आए थे .. उन्हें क्या इस तरह के दर्शनों की आशा होगी ? एक सवाल यह भी उठा कि जब प्रसाद बाबा को चढ़ाना ही नहीं है तो बाहर प्रसाद के नाम मनमानी लूट मचाने की आजादी क्यों दी जाती है ? ५०० रुपये देकर वी.आई.पी. दर्शन भी मेरी समझ से बाहर थे..
कुल मिलाकर इस बार न तो मैंने बाबा से कुछ माँगा , ना ही अगली बार फिर आने का मौका देने को कहा.. मुझे यही लगा कि इससे तो अच्छा है अपने घर के मंदिर में या शहर के मंदिर में जितना चाहो, उतनी देर बाबा के साथ वक्त बिताना .. वेतन का जो हिस्सा उनके नाम निकल कर रखती हूँ, उसे किसी गरीब को दान करना .. शायद उनमे मुझे मेरे भगवान के दर्शन हो जाए..यूं भी मन में हमेशा बसने वाले बाबा का दर्शन तो हमेशा सुलभ है..