Wednesday, March 30, 2011

लघुकथाएँ

टोटका
सुबह-सुबह घूमने जाने वाले व्यक्ति चौराहे पर भीड़ लगाकर खड़े हो गए थे | कल अमावस्या की रात थी और इसका साक्षी था चौराहे पर पडा बड़ा-सा कुम्हड़े का फल.. जिसपर ढेर - सा सिन्दूर लगा हुआ था, उसके अंदर नींबू काटकर रखा गया था, अंदर ही कुछ अभिमंत्रित लौंगे भी रखी हुई थी |
स्पष्ट था की अमावस्या की रात को अपने घर की अलाय-बलाय उतारने के लिए किसी ने जबरदस्त टोटका किया था और उसका उतारा चौराहे पर लाकर पटक दिया था |
लोग खड़े-खड़े खुसुर-फुसुर कर रहे थे ... रास्ता बुहारने आई जमादारनी भी "ना बाबा ना , मैं बाल-बच्चों वाली हूँ.." कहकर उसे बुहारने से इनकार कर गई | " अभी रास्ते पर चहल-पहल हो जाएगी, बच्चे भी खेलेंगे-कूदेंगे.. यदि किसी ने इसे छू लिया तो ?" सभी यहाँ सोचकर उलझन में थे कि एक अधनंगा व्यक्ति भीड़ को चीरकर घुस आया | दो दिन से भूखे उसके शरीर में उस कुम्हड़े को देखते ही फुर्ती आ गई | आँखे चमक उठी और कोई
कुछ समझता, इससे पहले ही उसने झपटकर कुम्हडा उठाया , उसपर नींबू निचोड़ा और गपागप खाने लगा... लोगों की आँखे फटी रह गई ..
उसके पेट की भूख का टोटका अमावस्या के टोटके पर भारी पड़ गया था |



नियति
वह लोगों के घर में साफ़-सफाई का काम करती थी | पति दिन भर मजदूरी करता , शाम को नशे में धुत घर आता .. अपनी मनमानी करता ..कभी उसे बिछौने की तरह सलवटों में बदलकर तो कभी रुई की तरह धुनकर ... वह मन ही मन उससे घृणा करती थी | करवा चौथ आती तो सास जबरन उसे सुहाग जोड़ा पहनने को कहती , सज-संवरकर व्रत करके पति की लंबी आयु की प्रार्थना करने को कहती .. वह यह सब करना न चाहती पर उससे जबरन करवाया जाता |
एक दिन उसका शराबी पति ट्रक के नीचे आक़र मर गया | उसे मानो नरक से मुक्ति मिली | आज वह खूब सजना -संवारना चाहती थी, हंसना खिलखिलाना चाहती थी पर उसके तन पर लपेट दिया गया सफ़ेद लिबास और होंठो पर जड़ दी गई खामोशी.. चुप्पी ..
वाह री नियति ......




या देवी सर्व भूतेषु

पूजाघर में नौ देवियों के भव्य चित्र लगे हुए थे | नवरात्रि चल रही थी , त्रिपाठी जी शतचंडी के पाठ में व्यस्त थे | मंत्रोच्चार से सारा घर गूँज रहा था -" ओंम एँ ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चेइ नमः ॥"
अचानक उनकी पत्नी ने उन्हें बाहर बुलाया ,, सुनिए , बहू की सोनोग्राफी की रिपोर्ट आ गई है.. बच्ची है पेट में
" तो सोचना क्या है,, हटाओ उसे.. हमें बेटी नहीं चाहिए.."
"मगर बहू न मानी तो ?"
" राजेश से कहो, लगाए दो हाथ कसके ॥ फिर भी न माने तो छोड़ आए मायके॥ कहना वहीं रहे सारी जिन्दगी .."
आदेश देकर वे पुनः जाप में व्यस्त हो गए .. ऊँ एम् ....
तस्वीर में देवी की आँखे विस्फारित मुद्रा में उन्हें देख रही थीं |

भारती पंडित
इंदौर

Friday, March 18, 2011

kavita

इस बार होली पर

रंगों से दिल सजा लूं इस बार होली पर
रूठों को अब मना लूं इस बार होली पर |

इक स्नेह रंग घोलूँ आंसू की धार में
पानी ज़रा बचा लूं इस बार होली पर |

अपनों की बेवफाई से मन है हुआ उदास
इक मस्त फाग गा लूं इस बार होली पर |

रिश्तों में आजकल तो है आ गई खटास
मीठा तो कुछ बना लूं इस बार होली पर |

उम्मीद की कमी से फीकी हुई जो आँखें
उनमें उजास ला दूं इस बार होली पर|

भारती पंडित
इंदौर






Wednesday, March 9, 2011

web partika me prakashit rachana




लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
भारती पंडित
की लघुकथा- गुरु दक्षिणा


मुखपृष्ठ

"अरे मास्टरजी... आप? आइए.. आइए.." इतने वर्षों के बाद मास्टरजी को अचानक अपने सामने पा कर मैं चौंक ही गया था। मास्टरजी... कहने को तो गाँव के जरा से मिडिल स्कूल के हेडमास्टर.. मगर मेरे आदर्श शिक्षक, जिनकी सहायता और मार्गदर्शन की बदौलत ही उन्नति की अनगिनत सीढियां चढ़कर मैं इस पद पर पहुँचा था। बीस साल पहले की स्मृतियाँ अचानक लहराने लगी थी आँखों के सामने... तब और अब में जमीन -आसमान का फर्क था... कल का दबंग-कसरती शरीर अब जर्जर - झुर्रीदार हो चला था। आँखों पर मोटे फ्रेम की ऐनक, हाथ में लाठी जो उनके पाँवों के कंपन को रोकने में लगभग असफल थी। मैली सी धोती, उस पर लगे असंख्य पैबंद छुपाने को ओढी गई सस्ती सी शाल... मेरा मन द्रवित हो गया था। भाव अभिभूत होकर मैंने मास्टर जी के पाँव छू लिए। मास्टर जी के साथ आए दोनों व्यक्ति चकित थे.. मुझ जैसे बड़े अधिकारी को मास्टर जी के पाँव छूते देख और साथ ही एक अनोखी चमक आ गई थी उनके मुख पर कि मास्टर जी को साथ लाकर उन्होंने गलती नहीं की है। मास्टर जी के चहरे पर विवशता लहराने लगी थी, जैसे मेरा पाँव छूना उन्हें अपराध बोध से ग्रस्त किए दे रहा हो।

"कहिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ? " क्या आदेश है मेरे लिए? " अपने चपरासी को चाय- नाश्ते का आर्डर देकर मैं उनसे मुखातिब हुआ।
"जी.., वो कल आपसे बात हुई थी ना..." मास्टर जी के साथ आए व्यक्ति ने मुझे याद दिलाया .." ये रवींद्र है, मास्टर जी का पोता .. इसी की नौकरी के सिलसिले में ...

यह व्यक्ति दो-तीन महीने से मेरे विभाग के चक्कर काट रहा था। वह चाहता था कि कैसे भी करके इसके बेटे को नियुक्ति मिल जाए। मैंने रवींद्र का रिकॉर्ड जाँचा था, अंक काफी कम थे। मैंने उन्हें समझाया थe कि मैं उसूलों का पक्का अधिकारी हूँ, योग्य व्यक्ति को ही नियुक्ति दूँगा। अब उनके साथ मास्टर जी का आना मेरी समझ में आ गया था। हालात आदमी को कितना विवश बना देते है। यही मास्टर जी जो एक ज़माने में उसूलों के पक्के थे। हमेशा कहते थे, "अपने काम को इतनी निपुणता से करो कि सामने वाले को तुम्हें गलत साबित करने का मौका ही न मिल पाए।" उन्हीं के उसूल तो मैंने अपनी जिन्दगी में उतर लिए थे और आज वे ही मास्टर जी मेरे सामने खड़े थे, एक अदनी सी नौकरी के लिए सिफारिश लेकर?

"ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा, वैसे भी मास्टर जी साथ आए है, तो और कुछ कहने की जरुरत है ही नहीं।" मेरे शब्दों में न चाहते हुए भी व्यंग्य का पुट उभर आया था जिसे मास्टर जी ने समझ लिया था और उनकी हालत और भी दयनीय हो गए थी, वे विदा होने लगे तो मैंने अपना कार्ड निकाल कर मास्टर जी के हाथ में थमा दिया..." अभी शहर में है, तो घर जरूर आइए मास्टर जी "

मास्टर जी ने काँपते हाथों से कार्ड थाम लिया था। उनके जाने के बाद मैं बड़ा अस्वस्थ महसूस करता रहा। सहज होने की कोशिश में एक पत्रिका उलटने लगा कि दरबान ने आकर बताया, "साहब, कोई आपसे मिलने आये हैं।"
"उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाओ, मैं आता हूँ " कहकर मैं हाउस कोट पहनकर बाहर आया .. एक आश्चर्य मिश्रित धचका सा लगा... "अरे मास्टर जी , आप? आइए ना.. "

"नहीं बेटा, ज्यादा वक्त नहीं लूँगा तुम्हारा," मास्टर जी की आवाज में कम्पन मौजूद था। "सुबह उन लोगों के साथ मुझे देखकर तुम्हारे दिल पर क्या गुज़री होगी, मैं समझ सकता हूँ। मेरे ही द्वारा दी गई शिक्षा को मैं ही झुठलाने लगूँ तो यह सचमुच गुनाह है बेटा,, पर क्या करता, मजबूरी बाँध लाई मेरे पैर यहाँ तक रवींद्र का बाप मेरा दूर रिश्ते का भतीजा है। मेरे बच्चों ने आलस - आवारगी में सारे जमीन- जायदाद गँवा दी। मेरे अकेले की पेंशन पर क्या घर चलता ? उस पर पत्नी की बीमारी.. ढेरों रुपये का कर्जदार हो गया मैं ... मकान भी गिरवी पड़ा है। ब्याज देने के तो पैसे नहीं, असल कहाँ से देता ? तभी रवींद्र का बाप बोला कि यदि उसका जरा सा काम कर दूँ तो मेरा मकान छुडा देगा। कम से कम रहने का ठौर हो जायेगा, यही लालच यहाँ खींच लाया बेटा। पर तुम्हें देखकर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। कुछ मसले ऐसे होते हैं जो समझौते के लायक नहीं होते। उनकी गरिमा कायम रहनी ही चाहिए। बेटा, तुम रवींद्र को मेरे कहने से नौकरी मत देना। अगर ठीक समझो, तभी उसे रखना।" कहकर मास्टर जी बाहर को चल पड़े थे.. मैं बुत बना खड़ा रह गया था


Monday, March 7, 2011

Women's Day

निज से मेरी पहचान हो
अस्तित्व का अब ज्ञान हो
किस हेतु मेरा जन्म है
किस निमित् मेरे कर्म है
मैं संगिनी, सहधर्मिणी
जननी भी मैं, अनुरागिणी
मैं दिव्य ज्योति समुज्जवला
मैं बुद्धि, शक्ति प्रवर्तिका
मैं समर्पिता और पतिव्रता
नारी हूं मैं ,मैं हूं वनिता





Tuesday, March 1, 2011

Aalekh

भूख छपास की
आइए आज भूख की बात करते है..भूख केवल पेट की ही नहीं होती.. एक भूख होती है छपास की और मंच की. इस भूख को एक बीमारी भी कह सकते है, जिसका वाइरस अधिकतर साहित्यकारों को और कलाकारों को अपनी चपेट में लेता है.. कलाकार भी वे जिनके ढोल में पोल होती है. यह वाइरस धीरे-धीरे दिमाग में घर करता जाता है और सारे व्यक्तित्व पर हावी होता जाता है. इस भूख से पीड़ित व्यक्ति की आत्माभिमान करने के शक्ति बहुत बढ़ जाती है.. उसे अपनी कला पर आत्मविश्वास नहीं, अति विश्वास हो जाता है. वह दूसरों की सुनना बिलकुल बंद कर देता है और अपनी ढपली-अपना राग आलापना शुरू कर देता है. किसी समारोह में जाने पर उसकी पहली कोशिश होती है मंच पर चढ़कर माइक हथियाने की.. यदि सरलता से मिल जाए तो ठीक, अन्यथा वह "बस जरा सा कुछ कहना है" कहकर मंच पर चढ़ जाता है. कई बार तो इस मंच के लिए आयोजकों के कोपभाजन बनने से भी नहीं डरता . यह दीवानगी तब और बढ़ जाती है, जब समारोह को कवर करने रिपोर्टर्स आते है.. फिर तो धक्का-मुक्की करके ऐसी जगह पहुचने का प्रयास होता है कि कल के अखबार में मुखड़ा उनका ही चमकना चाहिए.. चाहे समारोह में कोई भागीदारी हो या न हो.. जब बहुत प्रयासों के बाद भी फोटो में जगह नहीं मिल पाती, तो सेटिंग करने से बाज नहीं आते.. और भगवान की दया से यदि किसी समारोह में कोई कविता सुनाने(मुख्य अतिथि के आने में देर होने पर) या गीत गाने का मौका मिल जाए, तो जोड़-तोड़ करके ,अपने प्रभाव या पद का उपयोग करके ऐसी जुगाड़ फिट करते है कि समारोह चाहे कोई भी हो, मुख्य धारा के समाचार में अपना नाम और फोटो डलवाकर ही दम लेते है.. आयोजक बेचारा अगले दिन का अख़बार देखकर बाल नोचकर रह जाता है .. उसके आयोजन के समाचार का बदला रूप देखकर सिवाय मन ही मन गाली देने के कर भी क्या सकता है .. मगर अगली बार उसे अपने आयोजन में कदम भी न रखने देने की कसम खा लेता है..
ये तो हुए लक्षण .. अब सवाल यह कि इस बीमारी का इलाज क्या हो..कई विशेषज्ञों से चर्चा करने के बाद पता लगा कि इस बीमारी का सिर्फ एक इलाज है और वो है अपने विषय में पारंगत होना.. जब मन में ज्ञान गंगा बहने लगेगी, तो व्यक्ति पठन-मनन में रूचि लेने लगेगा , जिससे संभवतः उसके मन की मलिनता दूर हो जाए और वह आत्म मंथन करने में सक्षम हो जाए. अपने आप को उस स्तर तक उठाने का प्रयास करने लगे, जब छपने के लिए उसे जोड़-तोड़ न करने पड़े, वरन लोग स्वयं उसके पीछे आने लगे..
खुद को कर इतना बुलंद कि आसमां लगे कमतर
उधारी से न भर दामन, बना खुद ही को बेहतर..
भारती पंडित
इंदौर